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________________ 199 षडावश्यकोपसंहार षडावश्यकोपसंहार : जो श्रमण इन आवश्यक क्रियाओं को करते हुए पुनः उस रूप परिणत हो जाते हैं -निश्चय आवश्यक क्रिया रूप हो जाते हैं, वे निश्चय आवश्यक क्रियामय कहलाते हैं, और वे अन्तर्मुहुर्त में मुक्ति प्राप्त कर सकते है। तथा जो श्रमण इनको करते हुए भी अतिचारों से बच नहीं पाते हैं, वे इनके प्रभाव से कुछ काल तक स्वर्गों व मनुष्य लोक के सुखों को प्राप्त कर क्रमशः मुक्त होते हैं। जो सम्पूर्ण रूप से न्यूनता रहित है, जो मन-वचन-काय से इन्द्रियों को वश में रखने वाले हैं उनके ही ये आवश्यक परिपूर्ण होते हैं। तथा जिसने परिपूर्ण आवश्यकों का पालन किया है, उस साधु के ही मन-वचन-काय पूर्वक इन्द्रियाँ वशीभूत होती है जो कि षडावश्यक का उद्देश्य है। अतः श्रमणों को मन-वचन-काय से शुद्ध होकर, द्रव्य, क्षेत्र आदि विषय में निराकुलचित्त होकर नित्य ही मौनपूर्वक आवश्यक क्रियाओं का अनुष्ठान करना चाहिए। इस प्रकार षडावश्यकों को अति उत्साह से पाला जाता है, जैसे मयूर मेघ के शब्द को सुनकर नाचने लगता है वैसे ही छह आवश्यकों का पालक भी छह आवश्यकों की चर्चा-वार्ता सुनकर आनन्दित होता है। यदि कोई उनकी निन्दा करता है तो गंगा बहरा जैसा हो जाता है, अर्थात न तो वह स्वयं छह आवश्यकों की निन्दा करता है, और यदि दूसरा कोई करता है तो उसे सुनता भी नहीं है। षडावश्यक अर्थात् आत्मिक स्थिरता का प्रयत्न, अतः श्रमण आत्म चर्या/चर्चा में ही उद्यमवन्त रहते हैं। नित्य नैमित्तिक क्रियाएं : आवश्यकों के सम्पूर्ण उपायों में सावधान श्रमण कृतिकर्म का कथन करने वाले शास्त्र तथा गुरु परम्परा से प्राप्त उपदेश के अनुसार नियम से नित्य और नैमित्तक क्रियाओं को करते हैं। नित्य नैमित्तिक क्रियाओं का एक पृथक रूप से अध्याय के रूप में वर्णन अनगार-धर्मामृत में किया है। वैसे अभी तक के श्रमण- स्वरूप विवेचन नित्य क्रिया में समाविष्ट है ही, तथापि उसे विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करने के लिए पृथक रूप से वर्णन किया है। आशाधरजी ने अनगार धर्मामृत के नवम अध्याय के प्रथम 44 श्लोकों में नित्य क्रिया के प्रयोग की विधि बतलायी है। श्रमण- साधना में अन्य बहुत कर्तव्यों के साथ स्वाध्याय का विशेष महत्वपूर्ण स्थान है। साधु के पाँच आचारों में प्रथम ही ज्ञानाचार को स्थान मिला है। स्वाध्याय इसी का मूलभूत अंग है। अतः नित्य- क्रिया में स्वाध्याय पर ही विशेष जोर दिया गया है, और बारम्बार स्वाध्याय करने को इसका नियतकाल भी अधिकांश ही है। अहोरात्रि स्वाध्याय के माध्यम से ही व्यतीत करने को कहा गया है।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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