SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा प्रोत्साहन के दो शब्द सुनना तो एक कल्पना मात्र है और मैं इस विषम परिस्थिति से • गुजरा हूँ, अतः इस पुस्तक के प्रकाशन के पश्चात् आने वाले सामाजिक संकट मेरे लिए "ऊँट के मुँह में जीरा " की तरह ही होंगे। इस कारण यह प्रश्न ही मेरे लिए प्रासंगिक नहीं है । 18 नामोल्लेख पूर्वक की गयी समीक्षा-शैली में दूसरी प्रसिद्ध आपत्ति है कि इससे श्रमणाचार बदनाम होकर विवादास्पद हो जाता है। मेरी मान्यता है कि इस शैली से श्रमण का सत्य स्वरूप तो स्पष्ट रूप से उभर कर आता है, तथा श्रमण नामधारी का वह भ्रष्ट स्वरूप जिसकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया, अथवा आँखे जानबूझकर मूंदे बैठे हैं, वह विचारणीय हो जाता है, और होना भी चाहिए, हमें वह इष्ट है। यदि यह सुझाव दिया जावे कि भ्रष्टाचार का विवेचन करते हुए "कुछ साधु आज ऐसे भी है" ऐसे कहा जावे, तो मुझे इस शैली में आपत्ति है। क्योंकि "कुछ है" यह कथन समारोप का विरोधी नहीं है (अर्थात् यह कथन अनध्यवसाय का विषय है, इससे यह तो मिथ्याज्ञान है ) । इससे हानि यह होगी कि कुछ साधु भ्रष्ट हैं, यहाँ या तो सभी के साथ पूज्यता का व्यवहार होगा या फिर सभी अश्रद्धा के पात्र हो जाएंगे। तथा शिथिलाचार की वृत्ति हतोत्साहित नहीं होगी, जो भविष्य में बहुत खतरनाक सिद्ध होगी। इसके साथ ही यह बात भी है कि, जो वेशधारी तीर्थंकर जैसे महानपुरुष के द्वारा प्रतिपादित चारित्र को खुलेआम कलंकित करते शर्मिन्दा नहीं, हमारा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं । उपगूहन अंग विकारों को सुरक्षित करने की ढाल नहीं बनाया जा सकता है। अतः ऐसों का नामोल्लेख पूर्वक ही उसके चारित्र की समीक्षा होना ही चाहिए, हमने वही किया, जो एक जागस्क को करना चाहिए । परन्तु हमने लोकमर्यादाओं का भी पालन किया है, सम्बन्धित प्रकरणों के प्रमाणरूप में प्रस्तुत करने योग्य मेरे पास उपलब्ध चित्रों को ( फोटोज् ) प्रस्तुत नहीं किया है। तीसरा प्रश्न इस पुस्तक के लिए पाठकों से आदर का है। इसके लिए पहले हमें इस कृति की मूल आत्मा की ओर जाना चाहिए। मैं श्रमण स्वरूप की विवेचना में प्रवृत्त हुआ हूँ, अतः उसके प्रति निष्ठावान बने रहने की मेरी पहली नैतिक जिम्मेदारी है, और मैंने उसका ईमानदारी से पालन करने का प्रयास किया है। मैं समझ रहा हूँ कि प्रत्येक वह पाठक जिसका जीवन गौरवमय नैतिक व सदाचारमय होगा इस कृति के प्रति सदाशयता रखेगा; हाँ, जिन पाठकों का जीवन स्तर गौरवमय नहीं रहा है, उनको मैं दूर से ही प्रणाम करता हूँ। मुझे उनकी सम्भावित प्रतिक्रिया के प्रति चिन्तित होने की आदत नहीं है। मैं तो उनके प्रति क्षमाभाव रखता हूँ। साथ ही वे शिथिलाचारी भ्रमण जो गौरवपूर्ण चर्या नहीं निभा रहे हैं, और मुझे इसी कारणवश उनकी समीक्षा करनी पड़ रही है, उनसे मानवीय दृष्टिकोण से क्षमायाचना भी करता हूँ, मेरा उनसे द्वेष नहीं, अपितु मेरी तो उनके उत्थान की सद्भावनाएँ हैं । उनके अगौरवपूर्ण जीवन चर्या से सम्पूर्ण समाज/ धर्म शर्मिन्दा है, साथ ही मेरी लेखनी जिसने उनके चारित्र को रेखांकित किया है, कोई कम शर्मीली नहीं है,
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy