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________________ षडावश्यक / वंदना 39 नमस्कार करने को वन्दना कहते हैं। 185 वन्दना के भेद : मूलाचार में वंदना 6 प्रकार की बतलायी गयी है । ( 1 ) तीर्थंकर या सिद्ध आदि का नाम लेना नाम वंदना है। तीर्थंकर, सिद्ध आचार्यादि के प्रतिबिम्बों की स्तुति करना स्थापना वंदना है। 40 ( 3 ) एक तीर्थंकर सिद्ध या आचार्यादि के शरीर की स्तुति करना द्रव्य वंदना है । एक तीर्थंकर सिद्ध या आचार्यादि ने जिस स्थान में निवास किया हो, उस क्षेत्र की स्तुति करना क्षेत्र वंदना है। एक तीर्थंकर तथा सिद्ध आचार्यादि जिस काल में हुए हैं, उस काल की स्तुति करना काल वंदना है। एक तीर्थंकर सिद्धाचार्यादि के गुणों की स्तुति करना भाव वंदना है। वंदना और कृतिकर्म : वंदना आवश्यक के प्रकरण में मूलाचार, अनगारधर्मामृत, आदि श्रमण धर्म प्ररूपक ग्रन्थों में कृतिकर्म का बहुत ही उल्लेख हुआ है। अतः कृतिकर्म के सन्दर्भ में वन्दना का स्वरूप स्पष्ट होना अपेक्षित है। क्योंकि यह वन्दना जो कृतिकर्म अर्थात् विनय कर्म का ही रूप बताया है, इसकी मूलाचार में बहुत ही महिमा गायी गयी है, उसमें कहा है कि अल्पश्रुत का धारक भी विनय से कर्मों का क्षपण करता है। कृतिकर्म का सामान्य लक्षण धवल में प्राप्त होता है, वहाँ कहा है कि "क्रियते कृतिरिति व्युत्पत्तेः अथवा मूलकरमेव कृतिः, क्रियते अनया इति व्युत्पत्तेः 41 अर्थात् जो किया जाता है वह "कृति" शब्द की व्युत्पत्ति है । अथवा मूलकारण ही कृति है, क्योंकि जिसके द्वारा किया जाता है, ऐसी कृति शब्द की व्युत्पत्ति है । षट्खण्डागम में "कृतिकर्म" (क्रियाकर्म) का स्वरूप बतलाते हुए कहा कि "आत्माधीन होना, तीन प्रदक्षिणा देना, तीन बार अवनति (नमस्कार ) चार बार सिर नवानी (चतुः शिर) और बारह आवर्त ये सब "क्रियाकर्म" कहलाते हैं।42 कषाय पाहुड में कृतिकर्म को और स्पष्ट करते हुए कहा कि "जिनदेव सिद्ध, आचार्य, और उपाध्याय की वन्दना करते समय जो क्रिया की जाती है, उसे कृतिकर्म कहते हैं। 43 आचार्य वसुनन्दि ने सामायिक स्तवपूर्वक कायोत्सर्ग चर्तुविशंतिस्तव पर्यन्त जो विधि है उसे कृतिकर्म कहा है। 44 और इसका प्रयोग यथाजात मुद्राधारी श्रमण को मन-वचन-काय की शुद्धि करके दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनति पूर्वक कृतिकर्म का प्रयोग करने को कहा है। आचार्य शिवार्य कृतिकर्म स्थिति कल्प का लक्षण बतलाते हुए कहते हैं कि "चरित्र सम्पन्न मुनि का, अपने गुरु का, और अपने से बड़े मुनियों का विनय करना शुश्रूषा करना यह कर्तव्य है, और इसको कृतिकर्म स्थिति कल्प कहते हैं । 45 यह कृतिकर्म पापों के विनाश का उपाय कहा है। 46
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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