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________________ पडावश्यक/चतुर्विंशतिस्तव 183 चौबीस अथवा अपरिमित तीर्थंकरों की कृत्रिम और अकृत्रिम प्रतिमाओं का जो रूप ऊँचाई चैत्यालय आदि के द्वारा स्तवन किया जाता है उसे स्थापनास्तव कहते हैं। शरीर, चिन्ह, गुण, ऊँचाई और माता-पिता आदि की मुख्यता से जो लोकोत्तम तीर्थंकरों का स्तवन किया जाता है वह आश्चर्यकारी या अनेक प्रकार का द्रव्य स्तव है। तीर्थंकरों के स्वर्गावतरण, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और निर्वाणकल्याणकों से पवित्र अयोध्या आदि नगर, सिद्धार्थ आदि वन और कैलाश आदि पर्वत प्रदेश का जो स्तवन है वह क्षेत्रस्तव है। तीर्थंकरों के गर्भावतरण, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाणकल्याणकों की प्रशस्त क्रियाओं से गर्वयुक्त हुए काल का वर्णन तीर्थंकरों का कालस्तव है अर्थात् जिन समयों में कल्याणको की क्रियाएं हुयी उनका स्तवन कालस्तव है। परमार्थ स्तवन-भाव स्तव : ____ भावना में लीन भव्यों के द्वारा जो केवलज्ञान आदि असाधारण गुणों का वर्णन किया जाता है वह जीवादि पदार्थों के आश्रित द्रव्यगुण-पर्याय रूप सम्पदा का उपदेश देने वालों का भावस्तव है।31 वस्तुतः भावरतवन ही वास्तविक स्तवन है क्योंकि केवलज्ञानादि गुण का शुद्धात्मा के साथ अभेद है। क्षेत्र, काल, शरीर आदि तो बाह्य हैं। पूर्व में ही यह कह आए हैं कि, स्तवन में तीर्थंकर के अलावा "केवली जिन" आदि जीवों को लिया है उनमें शुद्धात्मा के स्तवन की प्रमुखता है। व्यवहार नय से स्तवन जो कि नाम, स्थापना, द्रव्य आदि के भेद से पंच प्रकार का है, वह वस्तुतः स्तवन नहीं क्योंकि उसमें शरीर आदिक के माध्यम से पुद्गल और जीव की मिलीजुली पर्याय है जो कि मात्र पौद्गलिक स्तवन है। आत्मा, एक, अखंड, अरूपी है, अतः तीर्थंकर के शरीर की कांति आदि वैभव दशाओं के स्तवन से तीर्थंकरस्थ शुद्धात्मा का स्तवन नहीं है इस सन्दर्भ में समयसार गा. 26 में प्रश्न किया कि क्या "तीर्थंकरों और आचार्यों की जो स्तुति की जाती है वह सब मिथ्या है" उत्तर में गाथा में ही कहा कि "जीव से भिन्न इस पुद्गलमय देह की स्तुति करके जो साधु ऐसा मानत हैं कि मैंने केवली भगवान की स्तुति की और वंदना की है,32 तो वह शारीराश्रित स्तवन निश्चय में योग्य नहीं है, क्योंकि जैसे नगर का वर्णन करने पर भी राजा का वर्णन नहीं किया जाता, इसी प्रकार शरीर के गुणों का स्तवन करने पर केवली के गुणों का स्तवन नहीं होता है। चूंकि शरीर के गुण केवली के गुण नहीं होते, अतः जो केवली के गुणों की स्तुति करता है, वह परमार्थ से केवली की स्तुति करता है। आ. कुन्दकुन्द निश्चय से स्तवन के स्वरूप को बतलाते हुए कहते हैं कि "जा इन्द्रियों को जीतकर ज्ञान स्वभाव के
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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