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________________ पडावश्यक/ चतुर्विशतिस्तव 181 चतुर्विशतिस्तव : ऋषभ आदि तीर्थंकरों के नाम व गुणों का कथन पूर्वक उनकी पूजा करके उनको मन, वचन काय से नमस्कार करना चतुर्विशतिस्तव है23 । भगवती आराधना की विजयोदया टीका में भी इसी प्रकार का भाव देखने को मिलता है। "इस भारत में हुए ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों" के जिनवरत्व आदि गुणों के ज्ञान और श्रद्धान पूर्वक चौबीस स्तवनों को पढना नो-आगमभाव चतुर्विशतिस्तव है24 परन्तु अनगार-धर्मामृत में थोड़ा भिन्न स्वरूप बतलाते हुए कहा कि "अर्हत केवली, जिन लोक का उद्योत करने वाले अर्थात् ज्ञाता तथा धर्मतीर्थ के प्रवर्तक ऋषभदेव आदि तीर्थंकरों का भक्तिपूर्वक स्तवन करने को चतुर्विंशतिस्तव कहते हैं। उसके छह भेद हैं।25 यहाँ पर पं. आशाधर ने तीर्थंकर के अलावा, अर्हत केवली एवं सामान्य जिन भी सम्मिलित किये हैं, क्योंकि सभी तीर्थंकर तो अहँत, केवली एवं जिन हैं। परन्तु सभी अर्हतकेवली एवं जिनतीर्थंकर नहीं हुआ करते हैं, इसी कारण से आशाधर ने अर्हत, केवली एवं जिन का भी अलग से उल्लेख किया है। तीर्थंकरत्व तो कर्मजनित उपाधि का नाम है, परन्तु अहँत, केवली, जिन अर्थात भगवान की स्वभाव प्राप्त गुणात्मक दशाएं हैं। अतः इन स्वाभाविक दशाओं को प्राप्त करने वाले साधक के लिए इन दशाओं का भी स्तवन दैनिक चर्या में सम्मिलित किया है। आत्मा की स्वाभाविक अवस्था (केवलज्ञान आदि आत्मगुणों) के प्रगट होने में मोहनीय कर्म अत्यन्त अवरोधक होने से अरि है, उस घातने से अरिहन्त कहलाते हैं, तथा अतिशय पूजा अर्हत्वात् वा अरहन्तः अर्थात् अतिशय पूजा के योग्य होने से उन्हें अरहन्त कहते हैं। आ. बट्टकेर ने कहा कि "अरहन्त नमस्कार और वन्दना के योग्य हैं, पूजा और सत्कार के योग्य हैं, तथा मुक्ति में जाने के योग्य है अतः उन्हें अर्हन्त कहते हैं।26 सब द्रव्यों और सर्व पर्यायों के प्रत्यक्ष ज्ञाता-द्रष्टा होने से केवली कहे जाते हैं। अनेक भवों के भयंकर कष्टों के कारणभूत कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने से "जिन" कहे जाते हैं। नाम आदि के भेद से नौ प्रकार के लोक के भाव से उद्योतक अर्थात् ज्ञाता हात है। लोक के नौ प्रकार इस तरह कहे हैं-(1) नाम लोक (2) स्थापना लोक ( 3 ) द्रव्यलोक (4) क्षेत्र लोक (5) चिन्ह लोक (6) कषाय लोक (7) भवलोक (8) भाव लोक (9) पर्याय लोक7 लोक में जो भी शुभ या अशुभ नाम है वह नामलोक है। लोक में जो भी अकृत्रिम अर्थात् स्वतः स्थापित और अकृत्रिम है वह स्थापनालोक है। छह द्रव्यों का समूह द्रव्यलोक है। अधोलोक, मध्यलोक, और उर्ध्वलोक से विभक्त सप्रदेशी आकाश क्षेत्रलोक है। द्रव्य गुण पर्यायों के संस्थान को चिन्हलोक कहते हैं अर्थात् धर्म, अधर्म द्रव्यों को लोकाकार रूप
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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