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________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा अपवाद का स्वरूप द्रव्य, क्षेत्र काल एवं भाव की अपेक्षा है। यह दृष्टि-बिन्दु वस्तु धर्म का प्रासंगिक यथोचित दर्शन करने में अति उपयोगी है । एवं कृत्य, अकृत्य और उनके परिणाम का विचार करने में, कार्य में, कर्तव्य - अकर्तव्य के निर्णय करने में भी सहयोगी है। किसी विशिष्ट समय में उत्सर्ग मार्ग ग्रहण करना चाहिए और किसी विशिष्ट समय में अपवाद का अवलम्बन लेना, यह कतई आवश्यक नहीं है । यह तो उस समय के द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव के आधार पर श्रमण के परिणामों की दिशा पर ही आधारित है। विषम परिस्थिति में भी उसको सहन करने की शक्ति हो तो, अपवाद मार्ग आवश्यक नहीं, परन्तु वह मार्ग कतई स्वीकृत नहीं, जिसमें पद की गरिमा ही कलंकित हो । अतः अपवाद मार्ग की भी सीमाएं है, यद्वा तद्वा आचरण अपवाद मार्ग कदापि नहीं कहा जा सकता है। 162 उत्सर्ग- अपवाद मार्ग में परस्पर सापेक्षता को श्रेयस्कर बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि - बाल, वृद्ध, श्रान्त अथवा ग्लान श्रमण को भी संयम का कि जो शुद्धात्म तत्व का साधक होने से मूलभूत है, उसका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार संयत का ऐसा अपने योग्य अति कर्कश आचरण ही आचरना उत्सर्ग है ।.... संयम के साधनभूत शरीर का छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृदु आचरण ही आचरना अपवाद है । संयम का छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार योग्य अति कर्कश आचरण आचरते हुए भी शरीर का छेद जिस प्रकार न हो ऐसे अपने योग्य मृदु आचरण का आचरना अपवाद - सापेक्ष उत्सर्ग है। इससे सर्वथा उत्सर्ग-अपवाद की मैत्री के द्वारा आचरण को स्थिर रखना चाहिए। 185 तथा कम शक्ति वाले श्रमणों को निरपेक्ष उत्सर्ग या अपवाद मार्ग कल्याणकारी नहीं है - यह बतलाते हुए आचार्य अमृतचन्द्र देव पुनः कहते हैं कि देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल, वृद्ध, श्रान्त, ग्लान के कारण जो आहार-विहार है, उससे होने वाले अल्प लेप के भय उसमें प्रवृत्ति न करे, तो अपवाद के आश्रय से होने वाले अल्पबन्ध के भय से उत्सर्ग का हठ करके अपवाद में प्रवृत्त न हो तो अति कर्कश आचरण रूप होकर अक्रम से शरीर पात करके देवलोक प्राप्त करता है। जिसने समस्त संयमामृत का समूह वमन कर डाला है, उसे तप का अवकाश न रहने से, जिसका प्रतिकार अशक्त है ऐसा महान लेप होता है, इसलिए अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग श्रेयस्कर नहीं है । और यदि वह बाल, वृद्ध, श्रान्त, ग्लानत्व के कारण आहार-विहार में होने वाले अल्प प को गिनकर उसमें यथेष्ट प्रवृत्ति करे, अर्थात् अपवाद से होने वाले अल्पबन्ध के प्रति असावधान होकर उत्सर्ग रूप ध्येय को चूककर अपवाद में स्वच्छन्दतया प्रवृत्ति करे, तो मृदु आचरण रूप होकर संयम विरोधी को असंयत जन के समान हुए उसको उस समय तप का अवकाश न रहने से, जिसका प्रतिकार अशक्य है ऐसा महान लेप होता है। इसलिए उत्सर्ग-निरपेक्ष अपवाद श्रेयस्कर नहीं है । इससे उत्सर्ग और अपवाद के विरोध से होने वाले आचरण की दुःस्थितता सर्वथा निषेध्य है, और इसीलिए परस्पर सापेक्ष उत्सर्ग और अपवाद से जिसका कार्य प्रगट होता
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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