SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 156 जैन श्रमण : स्वरुप और समीक्षा की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार दसवें गुणस्थान में होने वाला सूक्ष्म- सांपराय एवं 11 वें से 14वें गुणस्थान तक यथाख्यात- चारित्र में सूक्ष्म मूर्छा का भी अभाव होने से तथा पिच्छि के धारण का विकल्प नहीं होने से पिच्छि नहीं रहती है। चूंकि पिच्छि मोक्ष का कारण नहीं है। अतः गुणस्थान बढ़ने पर पिच्छि छूट जाती है। तीर्थंकरों के निहार नहीं होता है। अतः उनके शरीर की शुद्धि के लिए कमण्डलु की आवश्यकता नहीं है। गुणस्थानों की उपेक्षा उपर्युक्त छेदोपस्थापना, परिहार-विशुद्धि आदि चरित्र का वर्णन अगले अध्याय में किया जाएगा। "मयूरपिच्छि" में वस्तुगत विचार कर यदि यह कहा जाए कि मयूर का परित्यक्त अंग होने के कारण अपवित्र है, अतः इसका ग्रहण नहीं करना चाहिए; तो इसका उत्तर मुनि चामुण्डराय ने देते हुए कहा कि मयूरपिच्छि, सर्पमणि, और सीप से उत्पन्न मोती आदि शरीर से उत्पन्न एवं अशुचि होते हुए भी लोक व्यवहार में पवित्र मान लिये गये हैं।164 अतः प्रतिलेखन शुद्धि के लिए पिच्छि को रखना शास्त्र सम्मत एवं लोक सम्मत है। यह मात्र जीवदया हेतु स्वीकृत है। मयूर पिच्छि में ही यह विशेषता होती है कि नेत्रों में फिराने पर भी नेत्र में पीड़ा नहीं होती है एवं पंचरंगा होने से पाँच पापों के त्याग रूप संकल्प का प्रतीक भी है। परन्तु सामायिक एवं छेदापस्थापना के अलावा शेष चारित्र में संकल्पों के विकल्पों का अभाव होने से पिच्छि भी स्वतः छूट जाती है। कमण्डलु को सम्मूर्च्छन जीवों की हिंसा से बचाने के लिए पन्द्रह-पन्द्रह दिनों में प्रक्षालित कर (बाहर-भीतर से धोकर) स्वच्छ करते रहना चाहिए। यदि एक पक्ष के पश्चात् भी उसको शुद्ध न किया गया तो प्रतिक्रमण एवं उपवास प्रायश्चित्त के योग्य वह श्रमण है। इसी प्रकार उस कमण्डलु को वह श्रमण जिन-मन्दिर की वेदी के पास न लं जावे, एवं आहार के समय पास न रखे क्योंकि कमण्डलु शौच- क्रिया में प्रयुक्त होने के कारण अशुद्ध होने से लोक विरुद्ध है। ____ इस प्रकार जैन श्रमण पिच्छि- कमण्डलु को रखकर उससे संयम भाव एवं जीव दया को पुष्ट करते हैं, एवं सर्वोत्कृष्ट चारित्र को प्राप्त करते हैं। लोगों को इस मुद्रा पर विश्वास जागृत रहता है। अतः पिच्छि-कमण्डलु के रूप में यह मुद्रा सर्वत्र आदरणीय होती है। उत्सर्ग-अपवाद मार्ग : मोक्ष का मार्ग तो अपनी आत्मा में चिर परिणति रूप साधना का नाम है, और इस अवस्था में लगी हुयी दशा को श्रामण्य कहा जाता है। श्रामण्य का अपर नाम साम्य है। इस अवस्था को प्राप्त साधक की अनादि-कालीन संस्कारवश यह कमजोरी होती है कि वह अखण्डतः अन्तर्मुहुर्त तक स्वरूप में नहीं रह पाता है। शारीरिक आवश्यकताओं की
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy