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________________ जैन : स्वस्प और समीक्षा कहते हुए नमस्कार करते हैं, तब आचार्य भी अपने हाथ में पिच्छि लेकर मुनि की प्रतिवन्दना करते हैं। 16 160 154 व्यवहार शास्त्र के अंगभूत इन उपकरणों को न्यून संयम वाले अपवादमार्गी श्रमणों को ही आवश्यकता होती है; उत्सर्गमार्गी धारी उपेक्षासंयम वाले वीतराग चारित्रवंतो को आवश्यक नहीं। इस तथ्य को बतलाते हुए कुन्दकुन्द कृत नियमसार गा. 64 की टीका करते हुए अमृतचन्द्र कहते हैं कि, "अपहृतसंयमिनां संयमज्ञानाद्युपकरणग्रहणविसर्ग समय समुद्भव समितिप्रकारोक्तिरियम् । उपेक्षासंयमिनां न पुस्तककमण्डलुप्रभृतयः, अतरते परमजिनमुनयः एकान्तो निस्पृहाः, अत एव बायोपकरण निर्मुक्ताः । अभ्यन्तरोपकरणं निजपरमतत्वप्रकाशदक्षं निरुपाधिस्वरूप सहजज्ञानमन्तरेण न किमप्युपादेयमस्ति । अपहृतसंयमधराणां परमागमार्थस्य पुनः पुनः प्रत्यभिज्ञान कारणं पुस्तकं ज्ञानोपकरणमिति यावत्, शौचोपकरणं च कायविशुद्धि हेतुः कमण्डलु, संयमोपकरण हेतुः पिच्छिः । अर्थात् अपहृत संयमियों को ( सराग चरित्र, न्यूनतासहित संयम ) संयम ज्ञानादिक के उपकरण लेते- रखते समय उत्पन्न होने वाली समिति का प्रकार कहा है । उपेक्षा संयमियों को (उत्सर्ग, निश्चयनय) पुस्तक, कमण्डलु, आदि नहीं होते हैं, वे परमजिन मुनि एकान्त में (सर्वथा ) निस्पृह होते हैं । इसीलिए वे बाह्योपकरण रहित होते हैं। अभ्यंतर उपकरणभूत, निजपरमतत्व को प्रकाशित करने में चतुर ऐसा जो निरुपाधि स्वरूप सहज- ज्ञान उसके अतिरिक्त अन्य कुछ उपादेय नहीं है। अपहृतसंयमधरों को परमागम के अर्थ का पुनः पुनः प्रत्यभिज्ञान होने में कारणभूत ऐसी पुस्तक वह ज्ञान का उपकरण है, शौच का उपकरण कायविशुद्धि के हेतु-भूत कमण्डलु है, संयम का उपकरण हेतु पिच्छि है । भावसंग्रहकार ने अवधि ज्ञान प्राप्ति के पूर्व तक स्वयंपतित मयूर पिच्छि को प्रतिलेखन शुद्धि के लिए आवश्यक बतलाया। 161 कुन्दकुन्द के भावप्राभृत गा. 81 के चतुर्थ चरण "जिणलिंग णिम्मलं शुद्ध" की टीका करते हुए मुनि श्रुतसागर ने कहा है कि "जिणलिंग णिम्मलं शुद्ध" जिनलिंग नग्नरुपमर्हन्मुद्रा मयूर पिच्छिकमण्डलु सहितं निर्मल कथ्यते । तद्वयरहितलिंग कश्मलमित्युच्यते तीर्थंकर परमदेवात्तप्तद्वे बिना अवधिज्ञानादृते चेत्यर्थः । अर्थात् मयूर पिच्छि व कमण्डलु सहित नग्न रूप ही अर्हन्त भगवान की मुद्रा है, और वह निर्दोष तथा निर्मल है। जो इन दोनों से रहित नग्न रूप है वह मलिन कहा जाता है। किन्तु तीर्थंकर परमदेव, सप्तर्द्वि धारक, तथा अवधिज्ञानी के पिच्छि कमण्डलु धारण आवश्यक नहीं है। ये पिच्छि - कमण्डलु रहित ही अर्हन्त मुद्राधारक हैं। "महावीर चरित "
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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