SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीक्षा ग्रहण विधि 149 __ जैसे सम्पत्ति दो तरह से प्राप्त होती है, प्रथम तो स्वयं के विवेक एवं शक्ति के आधार पर प्रयत्न कर प्राप्त करना - इस स्थिति में अति अल्प, महापौरुषवन्त पुरुष आते हैं, इनके पथ का कोई प्रदर्शक नहीं होता है। द्वितीय वे जो परम्परा से प्राप्त शैली को प्राप्त कर तद्विषयक अनुभवी विद्वानों से निर्देशन प्राप्त करते हुए धन प्राप्त करते हैं। इसमें सभी सामान्य जन समाहित हैं। इसी प्रकार जो किसी से योग्य दिशा निर्देशन प्राप्त न करते हुए स्वयं सही दिशा का चयन कर मोक्ष पथ के पथिक होते हैं, वे स्वयं सभी के पथ प्रदर्शक होते हैं, उनका कोई पथ प्रदर्शक नहीं होता है। इसमें तीर्थंकर ही आते हैं। द्वितीय में सामान्य श्रमण होते हैं जो परम्परा से प्राप्त आचार्यों के समक्ष प्रत्यक्ष रूप से जाकर दीक्षा-दान की याचना करते हैं, और आचार्य, परम्परा से प्राप्त अट्ठाइस मूलगुण रूपी सम्पत्ति का दान करते हैं। परन्तु ऐसे श्रामण्यार्थी जिनको दुर्भाग्य से आचार्य की प्राप्ति न हो सके तो इस परिस्थिति में, जिनालय की दिशा की ओर या जिनविम्ब के समक्ष जाकर जैनागम की परम्परा के खण्डन का भय रखते हुये अति सावधानी पूर्वक मन में आचार्य को स्थापित करके श्रामण्य धर्म स्वीकारा जा सकता है, जैसे कि राजा मधु ने किया था। इसी प्रकार के उदाहरण जैनागम में यत्र-तत्र प्राप्त हैं, परन्तु यह राजमार्ग नहीं है। क्योंकि ऐसा करने पर जैन परम्परा की व्युच्छित्ति का भय ज्यादा एवं स्वच्छन्दता की संभावना अधिक रहती है। अतः ऐसा सामान्य रूप से करणीय नहीं है। आचार्य के समीप जाकर दीक्षा दान लेना यही करणीय राजमार्ग है। दीक्षादान विधि में, आचार्य के समीप जाकर आचार्य के द्वारा परीक्षा करक बिना किसी क्रियाकाण्ड के दीक्षा दान के उदाहरण ही प्राप्त हैं, परन्तु "क्रियाकलाप" ग्रन्थ में लिखा है कि "दीक्षा के पूर्व-दिन भोजन के पहले के समय पर वह दीक्षार्थी गुरु के पास विधिवत् पात्र में भोजन करने का त्याग करके करपात्र में भाजन ग्रहण करके जिनमन्दिर में आता है। पुनः दीक्षा के दिन उपवास ग्रहण करने के लिए "वृहत्प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन" क्रिया में सिद्ध भक्ति और योग भक्ति पढ़कर गुरु के पास उपवास सहित प्रत्याख्यान ग्रहण करके आचार्य भक्ति, शांति भक्ति, और समाधि भक्ति पढ़कर गुरु को नमस्कार करता है।150 यह पद्धति सम्भवतः दीक्षार्थी के पूर्वाभ्यास हेतु चलायी गयी है, परन्तु फिर ग्रन्थकारों में वर्तमान कालीन मुनि विद्यानन्द, ने "पिच्छ कमण्डलु", में एवं आर्यिका ज्ञानमति ने "दिगम्बर मुनि" में दीक्षार्थी के द्वारा गणधर वलय, शान्ति विधान एवं चारित्र शुद्धि विधान आदि कार्यक्रम कराने के लिए लिखा है इसका तो औचित्य माना जा सकता है परन्तु दीक्षार्थी को मंगल स्नान, यथायोग्य वस्त्र अलंकार आदि से युक्त महामहोत्सव ( गाजे बाजे से) के साथ दीक्षाविधि में शामिल करके दीक्षाविधि को एक प्रदर्शन की वस्त बनाकर रख दिया है। दीक्षा जैसी विधि में बाह्य प्रपंचों का अन्त करके ही प्रवेश करना उत्तम है। दीक्षा के हेतु आचार्य के एवं समस्त संघ के सम्मुख उपस्थित होने पर एवं उनसे अनुमति मिलने पर केशलांच करते हुए नग्नत्व स्वीकार करना चाहिए, तत्पश्चात् आचार्य
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy