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________________ 143 दीक्षा अनुमति विधान दीक्षा का त्याग करे, इसके अलावा तीसरा विकल्प नहीं है। दीक्षा अनुमति विधान - दीक्षा के प्रसंग में, कुटुम्ब से अनुमतिपूर्वक दीक्षित होने का कोई सर्वथा नियम नहीं है। पारिवारिक जनों के आश्रित दीक्षा विधान होने पर तो कदापि दीक्षा नहीं ली जा सकती है। क्योंकि वे तो कदापि दीक्षा अनुमति नहीं देंगे, जैसे पूर्व में कथित दीक्षा घटनाओं में भरत, कैकेयी राम के सेनापति कतान्तवक्र. हनमान के साथ हआ था। लक्ष्मण के आठ कमारों के दीक्षाकाल में राम ने उपहास ही किया था। राजा मधु ने तो युद्ध क्षेत्र में हाथी पर चढ़े ही बिना किसी को सूचना दिये दीक्षा ले ली थी। अतः इन प्रकरणों में तो पारिवारिक जनों की असहमति ही रही। आज तक के इतिहास में एक भी ऐसी घटना नहीं है कि जहाँ पर दीक्षा का तत्काल अनुमोदन रहा हो। प्रथम क्षण में तो पारिवारिक जनों की यही राय होती है कि अभी इतनी क्या जल्दी है। भले ही पश्चात् उन लोगों ने अनुमोदना की हो। परिवार चाहे कितना ही धार्मिक क्यों न हो, जैसे अति तत्वज्ञानी धार्मिक गृहस्थ राम तक ने दीक्षित लोगों को उपहास किया था, परन्तु पश्चात् उनकी सराहना ही की थी। मोह का ऐसा ही स्वरूप एवं उसका माहात्म्य है। मोह का ही दूसरा नाम गृहस्थ धर्म है। अतः मोही अपने मोह से किसी कार्य का निर्णय और उसमें हर्ष-विषाद करते हैं। इसमें ही मोही का गौरव और उसके मोह की सुरक्षा है। परन्तु तत्वज्ञान के प्रभावशाली प्रकाश में अज्ञानान्धकार की काली छाया से ग्रसित मोह ज्यादा संक्लेश परिणाम नहीं दे पाता, और अन्त में तत्वज्ञानी को तत्वज्ञान से युक्त प्रसंगों में प्रसन्नता ही होती है। यह तत्वज्ञान का माहात्म्य है। इसी कारण को देखते हुए मोह को जीत रहे श्रमण के लिए यह कहा कि वह पारिवारिक जनों से सहमति लेवे। इस कथन के पीछे दो अत्यन्त मनोवैज्ञानिक उद्देश्य रहे थे। यदि दीक्षार्थी का मोह पूर्णतः समाप्त नहीं हुआ होगा, तो पारिवारिक जनों के अति अनुनय विनय, अथवा अन्य उपायों से मोहाक्रान्त हो जाएगा। इससे उसके मोह की परीक्षा हो जायेगी। द्वितीय उद्देश्य यह है कि, दीक्षार्थी के वैराग्य रस से ओत-प्रोत वचन सुनकर कुटुम्ब में यदि कोई अल्पसंसारी जीव हो, तो वह भी वैराग्य को प्राप्त होता है- ऐसी परकल्याण की भावना रूप दीक्षा अनुमति विधान का रहस्य है, जैसे कि लक्ष्मण, हनुमान आदि कई उदाहरणों में अनेकों जीवों ने भी दीक्षा ग्रहण की थी। जो दीक्षा नहीं ले पाते, वे श्रावक धर्म स्वीकारते. अथवा अन्य व्रत, प्रतिमाएँ अथवा अपनी श्रद्धा को मोक्ष पथ में संवार ही लेते हैं। अतः उसके निमित्त से सभी अपनी-अपनी शक्ति से परिणामों एवं जीवन में शुद्धता लाते हैं। और इस दृष्टि से जैन पुराणों का अध्ययन करने पर यह तथ्य निकलता है कि लगभग वहाँ एक भी ऐसी घटना नहीं कि, जहाँ पर नव दीक्षार्थी ने अकेले ही व्रत लिए हों, और उसके साथ अन्यों ने अणुव्रत- महाव्रत आदि उससे प्रेरणा पाकर न स्वीकार किये हों। यह दीक्षा की अनुमति विधान का रहस्य एवं उससे लाभ है। अतः दीक्षा की अनुमति/सूचना पूर्वक ही
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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