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________________ श्रमण दीक्षा की पात्रता क्रियाओं का त्यागी है। तथापि पर्याय में शुभ राग नहीं छूटने से वह पूर्वोक्त प्रकार से पंचाचार को ग्रहण करता है। 141 आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा वर्णित दीक्षार्थी के दीक्षा काल में अभिव्यक्त उपर्युक्त भाव तीव्र ज्ञान, वैराग्य के परिचायक है। ज्ञान और वैराग्य के उपर्युक्त विचार एकदम तीव्र- पापी मिथ्यादृष्टि के नहीं हो सकते हैं। अपितु घर पर ऐसा कोई तीव्र पापी मिथ्यादृष्टि जीव कदाचित् हो तो दीक्षार्थी के दीक्षा में उपसर्ग ही करते हैं। पुराणों के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत की गयी घटनाओं में, जिन-जिन लोगों ने दीक्षाएँ ग्रहण की हैं, उनका पूर्व में पर्याप्त ज्ञान वैराग्य रूप तत्वज्ञान की भूमिका बनी हुयी थी, जिसके प्रतिफल में श्रामण्य दशा अवतरित हुयी थी। चूंकि दुःखों से मुक्त होने का एक मात्र उपाय श्रामण्य धर्म की प्राप्ति में ही बतलाया है। इसी कारण प्रवचनसार में कहा है कि, जैसे दुःखों से मुक्त होने के लिए मैंने श्रमण। धर्म अंगीकार किया है, उसी प्रकार तुम भी अर्हन्तों, सिद्धों, आचार्यों आदि को नमस्कार पूर्वक श्रामण्य को अंगीकार करो। 127 तथा उस श्राम्रण्य को अंगीकार करने का जो यथानुभूत मार्ग है उसके प्रणेता हम यह खड़े हैं। 1 .128 चारित्र (सम्यक् ) मुक्ति का साक्षात् कारण है । अतः मुनिजन भी श्रावक से प्रथम साक्षात्कार में उस साक्षात् कारण चारित्र का ही उपदेश देते हैं। क्योंकि वह यह मानकर ही चलते हैं कि मेरे पास आया जीव आसन्न भव्य जीव है। अतः मोक्ष का कारण ही बतलाना चाहिए। साधुओं के पास श्रावकों के जाने का अन्य कोई कारण प्रायशः नहीं माना जाता है । चूंकि साधुओं के पास आत्म-चर्चा के अलावा अन्य कोई वार्ता नहीं होती है; और जो प्रसन्न चित्त से एक बार भी आत्मा की चर्चा करता है वह आसन्न भव्य जीव हैं। 129 अतः आसन्न भव्य जीव को चारित्र धर्म के प्रति प्रेरित करना आचार्य का कर्तव्य है। 130 यदि वह ऐसा उपदेश नहीं करते हैं, तो वे जिनाज्ञा का उल्लंघन एवं उपदेश परिपाटी का अतिक्रमण करने से अपराधी हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा कि, जो अल्पमतिसाधु यति धर्म का उपदेश न करते हुये गृहस्थ धर्म का उपदेश दे देता है, उसको भगवान अर्हन्तदेव के आगम में प्रायश्चित्त का भागी बतलाया है। 131 परन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि श्रमण, श्रावक को प्रथम मुनिधर्म के लिए मात्र प्रेरित करता है, कोई वलात् स्वीकारने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है, यदि ऐसा करता है तो श्रमण दोषी है। तथा यदि वह नवागन्तुक श्रावक मुनिधर्म के लिए असमर्थता व्यक्त करता है तो वह श्रावकोचित चर्या आदि के प्रति प्रेरित करता है। श्रावक भी भ्रमण के उपदेशानुसार अपनी शक्ति प्रमाण जिनधर्म की सेवा करता है। 132 अपनी शक्ति को देखे बिना महाव्रतों का धारण बोझ ढोने जैसा है। अतः महाव्रतों को अंगीकार करने के पूर्व अपनी शक्ति की परीक्षा अवश्य ही कर लेनी चाहिए । दीक्षाग्रहण के सन्दर्भ में डॉ. सुदर्शन लाल जी के विचार द्रष्टव्य हैं- 133 संसार के विषयों से निरासक्त एवं मुक्ति का अभिलाषी प्रत्येक व्यक्ति इस जैनेश्वरी दीक्षा का ग्रहण
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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