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________________ श्रमण दीक्षा की पात्रता 135 पात्रता के उपर्युक्त षडाधारों की अत्यन्त आवश्यकता है। जैनधर्म में दीक्षा के प्रसंग अधिकांशतः पूर्व में संचित ज्ञान वैराग्य का प्रबल प्रवाह तथा साथ ही दैवात् किसी श्रमण का संयोग एवं उनसे धर्म श्रवण और फिर दीक्षित, अथवा वैराग्य की मंदगति में जब मृत्यु या संसार की क्षण भंगुरता का दर्शन, तदनंतर वैराग्य का प्रबल प्रवाह तदनुसार श्रमण दीक्षा अंगीकार, यह ही श्रमण दीक्षा के प्रसंगों का सार कहा जा सकता है। विभिन्न दीक्षार्थियों के दीक्षा प्रसंगों को जैन पुराणों के सन्दर्भ में भी देखा जा सकता है। प्रथम, रविषेणाचार्य विरचित पदापुराण के दीक्षा प्रसंग प्रस्तुत कर रहे हैं। "इन्द्रजीत और मेघवाहन ने अनन्तवीर्य मुनिराज से अपने भव पूँछे। ------ अपने अनेक भव सुनकर संसार सम्बन्धी वस्तुओं में प्रीति छोड़, परम संवेग से युक्त होकर इन्द्रजीत और मेघनाद ने कठिन दीक्षा धारण कर ली। इनके सिवाय जो कुम्भकर्ण तथा मारीचि आदि अन्य विद्याधर थे, वे भी अत्यन्त संवेग से युक्त होकर कषाय तथा रागभाव छोड़कर उत्तम मुनि पद से स्थित हो गये।125 2. भरत यद्यपि 150 स्त्रियों के स्वामी थे। सुन्दर महलों के निवासी थे, तथापि संसार से सदा विरक्त रहते थे। वे राम के वनवास के पूर्व ही दीक्षा लेना चाहते थे, पर ले न सके। राम के आगमन पर उनका वैराग्य प्रकृष्ट हो गया, राम लक्ष्मण ने उनको बहुत रोका। कैकेयी बहुत दुःखित हुयी, परन्तु कोई असर न पड़ा। अन्त में उनकी भाभियों ने अनुरक्त करने के उद्देश्य से जलक्रीडा का प्रस्ताव रखा, विनीत भरत को भाभीयों की भावनाओं का सम्मान करना पड़ा। परन्तु विभिन्न क्रीडायें उनको प्रभावित न कर सकी। इसी बीच त्रिलोक मण्डन गजराज के उपद्रव के कारण बात आयी गयी हो गयी (83 पर्व तक)। कालान्तर में (86 पर्व से) भरत का महामुनि देशभूषण के मुख से अपने भवान्तर का परिज्ञान होने पर वैराग्य उमडता है। वे अत्यन्त संवेगी होकर विनीत स्वर में दीक्षा याचना करते हैं, एवं समस्त परिग्रह का त्यागकर पर्यङ्कासन से स्थित हो महाधैर्य से यक्त अपने हाथ से केशलंच कर डालते हैं। भरत के अनराग से प्रेरित होकर "कछ अधिक एक हजार राजाओं ने क्रमागत राजलक्ष्मी का परित्याग कर मुनिदीक्षा धारण की। जिनकी शक्ति हीन थी एसे कितने ही लोगों ने मुनिराज को नमस्कार कर विधिपूर्वक गृहस्थ धर्म धारण किया ( अनुग्रशक्तयः केचिन्नमस्कृत्य मुनि जनाः अपासांचक्रिरे धर्म विधिनागार संगतम् ।। 86/12 )। जो निरन्तर अश्रुओं की वर्षा कर रही थी, तथा जिसकी बेतना अत्यन्त आकुल थी, ऐसी भरत की माता कैकेयी घबडाकर उनके पीछे-पीछे दौडती जा रही थी, सो वह बीच में ही पृथ्वी पर गिर पड़ी एवं मूछित हो गयी। कालान्तर में उसने सोचा कि ''मैं भी ऐसा कार्य करूँगी जिससे पापों से मुक्त होऊ" वह जिनेन्द्र प्रात धर्म से तो पहले ही प्रभावित थी, इसलिए महान् वैराग्य से युक्त हो एक सफेद साडी से युक्त हो गयी। तदनन्तर निर्मल सम्यक्त्व को धारण करती हुयी उसने तीन सौ स्त्रियों के
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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