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________________ मूलगुण संयमों का घात होता है। अतः साधुगण दोनों प्रकार के संयम की रक्षा करने के लिए स्नान का त्याग करते हैं। इससे कषाय का निग्रह रूप इन्द्रिय संयम और जीवों की रक्षा रूप प्राणि संयम का पालन होता है। 129 मूलाचार गा. 31 की आचारवृत्ति में, अस्नान व्रत में, उबटन लगाना, आँख में अंजन डालना, गर्मियों के समय पर मस्तकादि में जल का छिडकना, आदि क्रियाएँ जो कि शरीर अंग उपांगों को सुखकर हैं उनका परित्याग करना स्नानादि वर्जन बतलाया है । यथार्थ दृष्टि से देखा जाए तो स्नान के द्वारा शरीर तो शुद्ध नहीं होता है, बल्कि जीव हिंसा एवं आरम्भ आदि ही उससे होते हैं । यही कारण है कि श्रमणों के मूलगुण में ही उसका निषेध किया गया है। स्नान का उद्देश्य पवित्रता प्राप्त करना होता है। भ्रमण अपनी चेतना में दी श्रद्धावनत होते हैं, अतः उसको ही पवित्र रखना चाहते हैं । इसी तथ्य को उद्घाटित करते हुए आ. पदानन्दि ने "स्नानाष्टकम् " में कहा है कि "चित्त में पूर्व के करोड़ों भावों में संचित हुए पाप कर्म रूप धूलि के सम्बन्ध से प्रगट होने वाले मिथ्यात्व आदि मल को नष्ट करने वाली जो विवेक बुद्धि उत्पन्न होती है, वही वास्तव में साधुओं का स्नान है। इससे भिन्न जो जलकृत स्नान है वह प्राणी समूह को पीडाजनक होने से पापोत्पादक है । अतः उससे न तो धर्म सम्भव है और न ही स्वभाव से अपवित्र शरीर की पवित्रता ही संभव है। 114 इस प्रकार से चारित्र के अभिलाषी मुनि के स्नान आदि के न करने से जल, मल, एवं स्वेद से सर्वांग लिप्त हो जाने पर भी जो महाव्रत से पवित्र है, वह अस्नान नामक व्रत अत्यन्त गुणरूप है एवं दो प्रकार के संयम की रक्षा करने वाला है अर्थात् यहाँ स्नानादि का वर्जन करने से मुनि के अशुचिपना नहीं होता है, क्योंकि उनके व्रतों से पवित्रता मानी गयी है 1 25. भूमि शयन : श्रमण के अट्ठाइस मूलगुणों में एक भूमिशयन नामक मूलगुण भी है। इस मूलगुण का भाव स्पष्ट ही है कि भूमि अर्थात् जमीन / पृथ्वी को भूमि कहते हैं । इस मूलगुण का विशेष वर्णन भगवती आराधना में प्राप्त नहीं होता है। जमीन पर शयन का कारण यह है कि इससे अहिंसा महाव्रत का पालन होता है क्योंकि यदि पहले से तृणादिक पडे हुए होंगे तो उसके अन्दर विद्यमान जीवों का घात होगा । अतः उसका निषेध ही किया गया है । परन्तु यदि ऐसा संभव न हो सके, (स्वास्थ्य आदि खराब हो, या सल्लेखना का समय हो ) तो स्वयं अपने हाथ से भूमि पर बहुत मामूली सी घास आदि शुद्धि पूर्वक डाले। वह भी अपने शरीर प्रमाण हो । शरीर प्रमाण का अर्थ है कि वह तृण आदि शरीर के बराबर लम्बाई-चौडाई में ही मामूली बिछाया गया हो, अधिक न हो एवं काठ और शिलापट्ट पर
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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