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________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा तो यह कथन बन नहीं सकता। क्योंकि यदि यह स्थिति होती तो आगम में इसका निर्देश अवश्य ही देखने को मिलता। अतः यह तो सिद्ध है कि आगम में रत्नत्रय सम्बन्धी जो भी व्यवस्था की गयी है। वह तीनों कालों को ध्यान में रखकर की गयी है। तभी वह वीतराग सर्वज्ञदेव की वाणी कही जा सकती प्रायः जब हम जैन धर्म के इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं तो यह दिखायी देता है कि मुनियों की भूमिका में जो परिग्रह का संचार हुआ उसमें गृहस्थ मुख्य कारण हैं। अन्यथा, मुनिधर्म को विकृत करने में उनका हाथ न होता तो झूठे मनुष्य मुनिधर्म को अंगीकार करते ही नहीं। .सबसे पहले तो श्रुतकेवली भद्रबाहु के काल में गृहस्थों का योगदान मिलने पर मुनिधर्म में भ्रष्टाचार आया। उसके बाद उसके देखा-देखी श्वेताम्बर समाज का अनुकरण कर भट्टारक परम्परा का उदय हुआ। अतः समाज की अनुज्ञापूर्वक मुनि ही भट्टारक बन जाते हैं। यह परम्परा लगभग एक हजार वर्ष से चली आ रही है। इसलिए जो वर्तमान में परिग्रह धारी मनि दिखलायी देते हैं। वे यथार्थ मुनि न होकर उनकी परिगणना भट्टारकों में ही की जानी चाहिए। इस शोध प्रबन्ध में नग्नता की दृष्टि से अन्य सम्प्रदायों के जो उद्धरण दिये गये हैं। उन्होंने तात्विक दृष्टि से नग्नता को स्वीकार नहीं किया था। इसलिए उत्तर-काल में उन सम्प्रदायों में नग्नता की परम्परा का लगभग विच्छेद सा हो गया। नियम यह है कि व्यक्ति-स्वातन्त्र्य को ध्यान में रखकर जो स्वावलम्बन को स्वीकार करता है, वही परावलम्बन के त्याग करने का अधिकारी होता है। स्वावलम्बन में स्व का अर्थ आत्मा है। आगम में यह लिखा मिलता है कि यह आत्मा न कभी मरता है न कभी जन्म धारण करता है, वह अनादि अनन्त है। यह कथन पर्याय को गौण किये बिना बन नहीं सकता। अतः स्वावलम्बन को स्वीकार करने वाले व्यक्ति को यह ध्यान में लेना ही चाहिए कि वह पर्याय को गौण करे और स्वभावभूत आत्मा को मुख्य करके उसका
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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