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________________ 122 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा भी दीक्षा काल में राजा ऋषभदेव ने भी अपने बढ़े हुए बालों का लोंच किया था।94 भगवती आराधना में केशलोंच न करने के दोष-गुण बतलाते हुए कहा कि-केशलोंच न करने वालों के केश जूं आदि सम्मूर्छन जीवों के आधार होते हैं। और वे सम्मूर्च्छन जीव शयन आदि में दुष्परिहार होते हैं। तथा अन्यत्र से आये हुए कीट आदि देखे जाते हैं।95 इसकी विजयोदया टीका में स्पष्ट करते हुए कहा कि जो बालों में तेल मर्दन नहीं करता, सुगन्धित वस्तु नहीं लगाता, उन्हें पानी से नहीं धोता, उसके केशों में सम्मळुन आदि जू पैदा होते हैं। साधु के सोने पर, धूप में जाने पर, सिर से किसी के टकराने पर उन जीवों को बाधा पहुँचती है। बाधा का अर्थ है कि भिन्न देश, काल और स्वभाव होने से जीवों से जीवों को बाधा होती है। ऐसी स्थिति में उस बाधा को दूर करना अशक्य होता है, इस प्रकार केशलोंच न करने पर अहिंसा महाव्रत नहीं पलता है। यदि केशलोंच में केश कर्तन का विकल्प निकाला जाएगा तो प्रथम तो कर्तन में कैची आदि की अपेक्षा होने के कारण पराधीन है, एवं कर्तन के साधन मांगने पर दीनता आदि दोष एवं परिग्रह का प्रसंग प्राप्त होगा। तथा द्वितीय, कर्तन में केश-संस्कार आदि का प्रसंग आएगा और निर्विकार दशा प्राप्त नहीं हो सकेगी। अतः केश की लुंच प्रक्रिया ही सर्वोत्तम, सुगम एवं सहज-साधन है। आचार्य पदानन्दि ने भी इसी प्रकार के भाव व्यक्त किये हैं। लोंच के गुणों का कथन करते हुए आचार्य शिवार्य ने कहा कि "लोंच करने पर सिर मुण्डा हो जाता है। मुण्डना के होने पर निर्विकारता होती है। उससे विकार रहित क्रियाशील होने से प्रगृहीततर चेष्टा होती है। इस सन्दर्भ में विजयोदया टीका में प्रश्न किया कि "सिर- मुण्डन मुक्ति का उपाय नहीं है, क्योंकि वह रत्नत्रय रूप नहीं है जैसे असत्य बोलना, तब इस अनुपयोगी गुण के कहने से क्या लाभ है ? इसके उत्तर में कहा है कि मुण्डन होने पर निर्विकारता होती है। लीला सहित, गमन, श्रृंगार, कथा, कटाक्ष द्वारा निरीक्षण ये सब विकार हैं, जो ये सब नहीं करता वह निर्विकार होता है, और जिसकी चेष्टाएं विकार रहित होती हैं, वह रत्नत्रय में उद्योग करता है। एवं च केशलोंच से आत्मा दमित होती है और सुख में आसक्त नहीं होता है। तथा स्वाधीनता, निर्दोषता, और निर्ममत्व होता है। केशलोंच करने से आत्मा की धर्म में श्रद्धा प्रदर्शित होती है। तथा अपने धर्म पर श्रद्धा प्रकाशित करने से दूसरे की भी धर्म श्रद्धा उत्पन्न होती है, और उसमें वृद्धि होती है। इस तरह उपवंहण नामक गुण भी भावित होता है। लोंच से कायक्लेश नामक उग्र तप होता है। तथा दुख सहन करने से अन्य दुःखों को भी सहन करने में समर्थ होता है। दुःख सहन करने से अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है।97
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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