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________________ 120 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा अधीन नहीं होता है उसे अवश्य कहते हैं, एवं अवश्य के कर्म को आवश्यक कहते हैं।86 अवश जितेन्द्रिय श्रमण स्वसंवेदन श्रद्धा से युक्त आत्मा में निःशंक अवस्थान के लिए षड् आवश्यक करता है। इन षडावश्यकों के पालन करने का एक मात्र उद्देश्य आत्मा में निश्चल स्थिति है। ये आवश्यक क्रियाएँ तब तक ही की जाती हैं जब तक कि उसे शद्ध आत्मा की चिर स्थायी प्राप्ति न हो जाती है। 7 अतः इन षडावश्यकों का सामान्य वर्णन प्रस्तुत है। विशेष विवेचन चतुर्थ अध्याय में औधिक समाचार प्रकरण के अन्तर्गत किया जाएगा। 16. समता आवश्यक : जीवन मरण, लाभ-अलाभ में, संयोग-वियोग में, मित्र-शत्रु में तथा दुःख-सुख में समभाव होना समता है, इसे सामायिक भी कहते हैं। त्रिकाल में वन्दना करना अर्थात् प्रातः मध्यान्ह एवं सायंकाल में विधिवत् रूप से कम से कम एक मुहुर्त ( 48 मिनट ) तक सामायिक होती है।88 17. स्तुति : ऋपभ आदि तीर्थंकरों के नाम का कथन और गुणों का कीर्तन करके उनको मन-वचन-काय पूर्वक नमस्कार करना स्तुति नामक आवश्यक जानना चाहिए। 18. वन्दना : अर्हन्त, सिद्ध और उनकी प्रतिमा, तप में,श्रुत या गुणों में बड़े गुरु का एवं स्वगुरु का कृतिकर्मपूर्वक अथवा बिना कृतिकर्म के मन-वचन-काय पूर्वक प्रणाम करना वंदना है। 19. प्रतिक्रमण : अहिंसादि व्रतों में जा अतिचार आदि दोप उत्पन्न हुए हैं, उनको निन्दा-गर्दा पूर्वक शोधन करना - दूर करना प्रतिक्रमण है। 20.याख्यान: __मन-वचन-काय से भविष्य के दोपों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। आहार- ग्रहण करन के पश्चात् गुरु के समीप अगले दिवस तक चार प्रकार के आहार के त्याग रूप प्रतिज्ञा का प्रत्याख्यान कहते हैं। अतीत काल के दीप का निराकरण करना प्रतिक्रमण है। अनागत और वर्तमान काल में द्रव्यादि दोप का परिहार करना प्रत्याख्यान है। यह दोनों में अन्तर है। तप के हेतु सावध या निरवद्य वस्तु का त्याग करना ही प्रत्याख्यान है। किन्तु प्रतिक्रमण दोषों के
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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