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________________ 114 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा गुप्तिओं में लगने वाले अतिचारमनोगुप्ति के अतिचार : ____ आत्मा के राग-द्वेष मोह रूप परिणति, शब्द विपरीतता, अर्थ विपरीतता एवं ज्ञान विपरीतता तथा दुष्प्रणिधान अर्थात् आर्त-रौद्र रूप ध्यान या ध्यान में मन न लगाना ये मनोगुप्ति के यथायोग्य अतिचार हैं।67 वचनगुप्ति के अतिचार : कर्कश आदि वचन 'मोह और संताप का कारण होने से विष के तुल्य हैं। उनको श्रोताओं के प्रति बोलना और स्त्री, राजा, चोर और भोजन विषयक विकथाओं में, मार्ग विरुद्ध कथाओं में आदरभाव तथा हुंकार आदि क्रिया अर्थात् हुं-हुं करना, खकारना, हाथ से या भ्रू के चालन से इशारा करना ये वचनगुप्ति के यथायोग्य अतिचार हैं।68 कायगुप्ति के अतिचार: __ कायोत्सर्ग सम्बन्धी बत्तीस दोष- "यह शरीर मेरा है" इस प्रकार की प्रवृत्ति, शिव आदि की प्रतिमा के सम्मुख शिव आदि की आराधना करने जैसी मुद्रा में खडे होना अर्थात् दोनों हाथों को जोडकर शिव आदि की प्रतिमा के अभिमुख खड़ा होना अथवा जनसमूह से भरे स्थान में एक पैर से खडे होना, ये सब कायोत्सर्ग रूप काय गुप्ति के अतिचार हैं। तथा जहाँ जीव-जन्तु, काष्ठ पाषण आदि निर्मित स्त्री प्रतिमाएँ और परधन प्रचुर मात्रा में हो ऐसे देश में अयत्नाचार पूर्वक निवास अहिंसादित्याग रूप काय गुप्ति का अतिचार है। अथवा अपध्यान सहित शरीर के व्यापार की निवृत्ति अचेष्टा रूप काय गुप्ति के अतिचार है।69 पूर्व में गुप्ति का लक्षण मन वचन काय से ज्ञानानन्द स्वभावी आत्मा की रक्षा करना ही गुप्ति का स्वरूप बतलाया था। परन्तु ऐसा श्रमण जो चेष्टा रूपी प्रतिहारी के द्वारा मोक्षमार्ग की देवी गुप्ति से वहिष्कृत किया गया है, एवं वह पुनः गुप्ति की आराधना का अवसर प्राप्त करना चाहता हैं तो उसे गुप्ति की सखी समिति का आश्रय लेना चाहिए। अभिप्राय यह है कि जैसे कोई नायक किसी नायिका को रिझाना चाहता है, किन्तु अवसर नहीं पाता तो वह उस नायिका को अपने अनुकूल करने के लिए उसकी सखियों का सहारा लेता है यही उसके लिए श्रेयस्कर है। उसी तरह जो श्रमण गुप्ति की आराधना करना चाहता है, उसे समिति का पालन करना चाहिए, क्योंकि समिति गुप्ति की सखी है। यतः समिति गुप्ति के स्वभाव का अनुसरण करती है। अतः समितियों में गुप्तियाँ पायी जाती हैं, किन्तु गुप्तियों में समितियाँ नहीं पायी जाती हैं। गुप्तियाँ निवृत्ति प्रधान होती हैं और समितियाँ प्रवृत्ति प्रधान, चूंकि 28 मूलगुण बाह्य प्रवृत्ति प्रधान है। अतः समितियों को मूलगुण में शामिल किया गया है न कि गुप्तियों को, जहाँ समितियों को गुप्तिओं की
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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