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वृत्ति का पालन करते हैं । इन सभी नियमों के पालन से उनका मन शांत होता है । अहिंसा का पालन करने से चित्त में दया, करुणा, क्षमा एवं सहनशीलता के भाव प्रकट होते हैं । द्रव्यहिंसा से बचने पर वे भावहिंसा से स्वयं बचते रहते हैं ।
जब भावों में करुणा, दया के भाव पनपते हैं, तो हम संसार के पापों से भयभीत होने लगते हैं । 'तीर्थंकर' पद में जो १६ भावनायें हैं, उनमें संसार से भयभीत होना भी हैं । जैन प्रत्येक समय यही सोचता हे कि - 'मंगलाणं च सव्वेसि' सभी का मंगल हो । समस्त जीवसृष्टि निर्भय बने, सुखी रहे यही भावना प्रबल बनती है ।
जैन जीवन-शैली में मात्र भोजन तक ही अहिंसा की बात नहीं है अपितु उनके बचन भी परहितकारी होते हैं । वाणी में सत्यप्रियता एवं हित की भावना होती है । जीवन के दैनिक कार्य भी पूरी सावधानी से करने का विधान होने से वस्तु को कैसे रखना, स्वच्छ करना आदि के भी विधान हैं । इससे जीवन व्यवस्थित एवं स्वच्छ रहता है । आज भी जैनों के घर सबसे अधिक स्वच्छ व्यवस्थित होते हैं ।
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जैनों की जीवन-शैली पूरी श्रावक धर्म पर आधारित है । जहाँ देव - शास्त्र - गुरु-धर्म के प्रति समर्पण होने से भावों की शुद्धि रहती है । प्रत्येक जैन त्रि-मकार (मद्य - माँस - मधु ) का सर्वथा त्यागी होता है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष क्रूरहिंसा के कारण हैं । प्रत्येक जैन सप्त व्यसन का त्यागी होने से अहिंसक तो होता ही है, व्यसनों से मुक्त होता है । वह नशेबाज नहीं होने से सद्विचार करता है । उसका दिमाग शांत और सही दिशा में सोचने वाला होता है । जब उसके जीवन में द्रव्य और भाव अहिंसा होती है तो स्वाभाविक रूप से वही वाणी द्वारा सदैव सत्य बोलता है, सत्याचरण करता है, भाषासमिति का ध्यान रखता है और सत्यव्रत का पालन करता है, इससे उसमें ईमानदारी प्रकट होती है । वह व्यापार को आजीविका का साधन मान कर सत्य के साथ ही व्यापार करता है । इसके कारण वह चोरी से बचता है । कम तौलना, ब्लेक करना, संग्रह करना आदि के पाप से बचता है, क्योंकि ऐसा जैन सदैव संतोषी होता है । वह इस कारण परिग्रह-परिमाण व्रत का पालन करता है और
ज्ञानधारा - 4 55.95 ८४ 5.515 चैन साहित्य ज्ञानसभ