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२८६. मणवयणकायगुत्ति-दियस्स समिदीसु अप्पमत्तस्स ।
आसवदारणिरोहे, णवकम्मरयासवो ण हवे ।।१२।।
मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति के द्वारा इन्द्रियों को वश में करने वाला तथा समितियों के पालन में अप्रमत्त साधक के आस्रवद्वारों का निरोध हो जाने पर नवीन कर्म-रज का आस्रव नहीं होता है । यह संवर-अनुप्रेक्षा है ।
२८१.
મતગુતિ, વચનગુતિ અને કાયમુતિથી ઇન્દ્રિયોને વશ કરતાર તથા સમિતિઓના પાલતમાં અપ્રમાદી સાધકતાં આત્રવદ્વારોનો વિરોધ થઈ જવાથી તવી કર્મ-રજનો આરવ થતો હોતો નથી. આ સંવર-અતૃપ્રેક્ષા છે.
286. Controlling the senses through concealment
of mind Speech & Body as also free from laziness in observance of five 'Samities' (necessary actions with utmost care and without negligence) by contracepting influx doors for new karmic particles, donot enter the soul and that is 'Samvar Anupreksha.'
२८७. बंधप्पदेस-ग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणे हि पणत्तं ।
जेण हवे संवरणं तेण दु णिज्जरण मिदि जाण ॥१३॥
बँधे हए कर्म-प्रदेशों के क्षरण को निर्जरा कहा जाता है। जिन कारणों से संवर होता है, उन्हीं कारणों से निर्जरा
होती है। GLORY OF DETACHMENT PSSSSSSSSSSSC que)
GLORY OF DETACHMENT
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