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## The Sutra Kritanga Sutra
**Verse 7:**
He who, even when instructed, remains unperturbed in his mind when faults arise, and is taught by the Acharya and others, is **pesal**, endowed with humility and other virtues, a seer of subtle meaning, and a hero of the self. He is a noble soul, observing restraint, and imbued with equanimity and **ujjuchare** - straightforward conduct.
**Verse 8:**
He who, with little wisdom, considers himself wise, is like a conch shell, empty and hollow. He is like a fool who, clinging to his own opinion, sees the world as a mere reflection.
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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
से पेसले सुहुमे पुरिसजाए, जच्चन्निए चेव बहुपि अणुसासिए जे तहच्चा, समे हु से होइ
सुउज्जुयारे । अझंझपत्ते ॥७॥
छाया स पेशल: सूक्ष्मः पुरुषजातः जात्यन्वितश्चैव सुऋज्वाचारः । वह्वप्यनुशास्यमानो यस्तथार्चः समः स भवत्यझंझाप्राप्तः ॥
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अनुवाद – जो साधु अनुशासित होने पर भी - त्रुटि होने पर आचार्य आदि द्वारा शिक्षा दिये जाने पर अपने चित्त को अविकृत रखता है वही पेसल विनयादिगुणों से युक्त, सूक्ष्म अर्थ का दृष्टा और आत्म पराक्रमशील होता है, वही कुलीन होता है । संयम का पालन करता है तथा समत्व भाव और ऋजु आचार- सरल आचार से अन्वित है ।
टीका पुनरपि सद्गुणोत्कीर्तनायाह-यो हि कटुसंसारोद्विग्नः क्वचत्प्रमादस्खलिते सत्याचार्यादिना बह्वपि 'अनुशास्यमानः' चौद्यमानस्तथैव - सन्मार्गानुसारिण्यर्चालेश्या चित्तवृत्तिर्यस्य स भवति तथार्च:, यश्च शिक्षां ग्राह्यमाणोऽपि तथाचें भवति स 'पेशलो' मिष्टवाक्यो विनयादिगुणसमन्वितः 'सूक्ष्मः' सूक्ष्मदर्शित्वात्सूक्ष्मभाषि (वि) त्वाद्वा सूक्ष्मः स एव पुरुषजात: ' स एव परमार्थतः पुरुषार्थकारी नापरो योऽनायुधतपस्विजनपराजितेनापि क्रोधेन जीयते, तथाऽसावेव 'जात्यन्वित: ' सुकुलोत्पन्नः, सच्छीलान्वितो हि कुलीन इत्युच्यते, न सुकुलोत्पत्तिमात्रेण, तथा स एव सुष्ठु-अतिशयेन ऋजुः- संयमस्तत्करणशीलः - ऋजुकरः, यदिवा 'उज्जुचारे' त्ति पथोपदेशं यः प्रवर्तते न तु पुनर्वक्रतयाऽचार्यादिवचनं विलोमयति- प्रतिकूलयति, यश्च तथार्च: पेशल: सूक्ष्मभाषी जात्यादिगुणान्वितः क्वचिदवक्रः 'समो' मध्यस्थो निन्दायां पूजायां च न रुष्यति नापि तुष्यति तथा अझंझा-अक्रोधोऽमाया वा तां प्राप्तोऽझंझाप्राप्तः, यदिवाऽझंझाप्राप्तैः - वीतरागैः 'समः' तुल्यो भवतीति ॥७॥
टीकार्थ सूत्रकार सद्गुणों का उत्कीर्तन करने हेतु कहते हैं- जो पुरुष कटु-कठोर दुःखमय संसार से उद्विग्न हैं, प्रमादवश कहीं स्खलित हो जाता है, वैसा होने पर आचार्य आदि द्वारा भलीभांति जब वह अनुशासित किया जाता है, पहले की ज्यों अपने चित्त वृत्ति को सन्मार्ग में लगा देता है अर्थात् आचार्य द्वारा शिक्षा दिये जाने पर अपने चित्त को शुद्ध बना लेता है वह पेसल - मधुरभाषी तथा विनयादि गुणों से युक्त होता है। सूक्ष्मगंभीर अर्थ का दृष्टा होता है । अथवा उसका वक्ता होता है । अथवा स्वयं सूक्ष्म - गहरा होता है वह वास्तव में पुरुषार्थशील है - आत्मा पराक्रमोद्यत होता है। जो पुरुष आयुध रहित, तपस्वीजनों से पराजित क्रोध के वशीभूत हो जाता है वह पुरुषार्थशील नहीं होता । जो सत् शील से पवित्र आचरण से युक्त होता है वही उच्च कुल उत्पन्न या कुलीन कहा जाता है । केवल उत्तम कुल में उत्पन्न होने से कोई कुलीन नहीं होता । वही पवित्र आचरण युक्त ही संयम का परिपालक होता है । अथवा ऋजु आचार में, संयम में यथोपदेश गुरु के उपदेश के अनुसार प्रवर्तनशील होता है। जो वक्रता से गुरु के वचन के विरुद्ध नहीं चलता एवं अपने चित्त को निर्मल रखता है- सूक्ष्मार्थ भाषी होता है, जाति आदि गुणों से युक्त होता है, अथवा अवक्र - समत्व युक्त, मध्यस्थ होता है, निन्दा होने पर रुष्ट नहीं होता तथा पूजा सत्कार होने पर तुष्ट नहीं होता । क्रोध और माया से अव्याप्त रहता है वह क्रोध तथा मायाविहीन वीतराग महापुरुषों के तुल्य होता है ।
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जे आवि अप्पं व सुमति यत्ता, संखाय वायं अपरिक्ख कुज्जा । तवेण वाहं सहिउत्ति मत्ता, अण्णंजणं पस्सति बिंबभूयं ॥८॥
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