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Shri Sutrakritanga Sutra
Translation:
Those who are disfigured by ignorance, who are smeared with a little knowledge or learning, and who have doubts about scriptural knowledge (shrutajnana) and knowledge (jnana), and who speak falsehoods - they cast doubt on the scriptures revealed by the Omniscient (Sarvajna). They say that this (scripture) is not composed by the Omniscient, or that its meaning is different. Or out of the pride of their scholarship, they speak falsehoods, saying that what I say is alone correct, and not otherwise.
Those who, when questioned, twist (the meaning) and truly deceive (the questioner) regarding the true purport - they, though appearing as ascetics here, are in fact deceitful and will go to endless destruction.
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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
बहुनिवेश:, यदिवागुणानामस्थानिक:- अनाधारो बहुनां दोषाणां च निवेशः-स्थानम् आश्रय इति, किंभूताः पुनरेवं भवन्तीति दर्शयति-ये केचन दुर्गृहीतज्ञान लवावलेपिनो ज्ञानेश्रुतज्ञाने शंका ज्ञान शंका तथा मृषावादं वदेयुः, एतदुक्तं भवति सर्वज्ञप्रणीते आगमे शंका कुर्वन्ति, अयं तत्प्रणीत एव न भवेद् अन्यथा वाऽस्यार्थः स्यात्, यदिवा ज्ञानशङ्कया, पांडित्याभिमानेन मृषावादं वदेयुर्यथाऽहं ब्रवीभि तथैव युज्यते नान्यथेति ॥ ३ ॥
टीकार्थ - जो तरह तरह से परिशोधित है, मिथ्यामार्ग की प्ररूपणा अपनयन से जो निर्दोष बनाया गया है, वह विशोधित मार्ग कहा जाता है, जो सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, तथा सम्यग्चारित्र मूलक मोक्ष का पथ है किन्तु अपने आग्रह रूपी ग्रह द्वारा ग्रस्त-दुराग्रहयुक्त गोष्ठामाहिल की तरह आचार्य परम्परागत धर्मोपदेश से प्रतिकूल कथन-अनुकथन करते हैं जो ऐसे लोग आत्मोकर्ष - अपने अहंकार के कारण अपनी रूचि के अनुरूप रचित व्याख्या में व्यामूढ़ होते हुए आचार्यों की परम्परा से आयात -समागत अर्थ का परित्याग कर उसके विरुद्ध अर्थ की विवेचना करते हैं वे सूत्र के गंभीर अभिप्राय आशय को कर्मोदय के कारण पूर्वा पर संदर्भ के अनुसार आत्मसात् करने में असमर्थ हैं । वे अपने आपको पंडित - ज्ञानी मानते हैं तथा उत्सूत्र - सूत्र विरुद्ध प्रतिपादन करते हैं। आत्मभाव - अपनी अभिरूचि के अनुसार सूत्र का व्याकरण - व्याख्यान करना अत्यन्त अनर्थ का हेतु है । सूत्रकार यह व्यक्त करते हैं जो पुरुष अपने अभिनिवेश - दुराग्रह के कारण ऐसा करता है, वह ज्ञान आदि गुणों का स्थान- आधार या पात्र नहीं होता। वे गुण ये हैं- व्यक्ति पहले गुरु से ज्ञान सुनना चाहता है, प्रतिपृच्छा करता है, ग्रहण करता है, ईहा - तर्क करता है, अपोह - उहापोह करता है, समाधान होने पर धारण करता है, भली भांति उसे क्रियान्वित करता है । अथवा गुरु की शुश्रुषा आदि द्वारा सम्यक्ज्ञान का अवगम-बोध प्राप्त होता है तब सम्यक् आचरण फलित होता है और उससे समस्त कर्म क्षीण होने के परिणामस्वरूप मोक्ष प्राप्त है । वह निह्नव इन गुणों का आयतन - भाजन नहीं होता । कहीं कहीं 'अट्ठाणिए होंति बहूणिवेस' ऐसा पाठ प्राप्त होता है। उसका आशय यह है कि वह पुरुष सम्यग्ज्ञान आदि गुणों का अस्थान अभाजन या अपात्र होता है । प्रश्न करते हुए कहा जाता है कि वह कैसा होता है ? कौन है ? उत्तर के रूप में समाधान देते हुए प्रतिपादित किया जाता है कि ज्यों अत्यधिक अनर्थों का सम्पादक-निष्पादक होते हुए दुराग्रही है अथवा वह पुरुष गुणों का पात्र नहीं होता किंतु बहुत से दोषों का निवेश - स्थान या आश्रय होता है। ऐसे पुरुष कौन से होते हैं, यह दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं-जो पुरुष ज्ञानलव-थोड़ा सा ज्ञान या विद्या प्राप्त कर अवलेप- अभिमान करते हुए श्रुतज्ञान में - सर्वज्ञनिरूपित आगम में शंका करते हुए मिथ्याभाषण करते हैं । कहने का अभिप्राय यह है कि ज्यों सर्वज्ञ प्रणति आगम में शंका करते हैं कि यह सर्वज्ञ प्रणीत हो ही नहीं सकता । या यों कहते हैं कि इसका अर्थ भिन्न है अथवा उसमें शंका करते हुए अपने पांडित्य - विद्वता के घमंड से असत्य भाषण करते हैं और कहते हैं कि जैसा मैं बोलता हूँ वही युक्त उपयुक्त या सही है। उससे अन्यथा - अन्य प्रकार से सही नहीं है ।
जे यावि पुट्ठा पलिउंचयंति, आयाणमट्टं खलु वंचयित्ता ( यन्ति ) । असाहुणो ते इह साहुमाणी, मायण्णि एसंति अतघातं ॥४॥
छाया
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येचापि पृष्टाः परिकुञ्चयन्ति, आदानमर्थं खलु वञ्चयन्ति । असाधवस्ते इह साधुमानिनो मायान्विता एष्यन्त्यनन्तघातम् ॥
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