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**The essence of knowledge for a wise person is that they do not harm any living being. The principle of non-violence is connected to this very idea, one should know this.** **Commentary:** **This very thing is being affirmed here - the word "khu" is used for emphasis or as a figure of speech. This very thing, the cessation of the killing of living beings, is the "essence" of a wise person, one who knows the true nature of life and the bondage of actions that lead to death. This is being said again for emphasis and to show respect - that which does not harm any living being, which does not inflict unwanted pain and desires happiness, this is the most essential knowledge for even the most knowledgeable wise person. This is because the cessation of harming others is the most essential knowledge. And as it has been said: **"What is the use of all that learning, even if it is as vast as a mountain of straw? Where there is no knowledge of this, that one should not inflict pain on others, that learning is useless."**
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________________ श्री मार्गाध्ययनं टीकार्थ - जो पृथ्वी आदि जीव निकाय का जीवत्व सिद्ध करने में अनुकूल या सक्षम है, ऐसी युक्तियों द्वारा बुद्धिमान पुरुष पृथ्वी आदि का जीवत्व सिद्ध करे अथवा असिद्ध विरुद्ध और अनेकान्तिक संज्ञक हेत्वाभाषों को छोड़कर जो हेतु पक्ष में विद्यमान रहतेहैं तथा सपक्ष में भी अवस्थित रहतेहैं एवं विपक्ष में नहीं रहते । उन तर्क संगत सद्हेतुओं से पृथ्वी आदि जीवों का जीवत्व सिद्ध करें । वैसा कर इन सभी प्राणियों के लिये दु:ख अकांत-अप्रिय है, ये दुःख नहीं चाहते हैं, सुख चाहते हैं । यह जानकर किसी की भी हिंसा न करे। पृथ्वी आदि पदार्थों का जीवत्व सिद्ध करने वाली युक्तियां संक्षेप में इस प्रकार है । पृथ्वी सात्मिका-आत्मा या जीव सहित है क्योंकि पृथ्वी रूप विद्रुम-मूंगा, लवण-नमक, उप्पल-पाषाण आदि अपने समाने जाति के अंकुर उत्पन्न करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं जैसे अर्श-बवासीर अपने विकारमय अंकुर पैदा करता है । पानी सचेतन-चेतनायुक्त है क्योंकि पृथ्वी का खनन करने से-उसे खोदने से, उसके स्वभाव में कोई विकार या परिवर्तन नहीं आता । जैसे मेढ़क के स्वभाव में कोई विकृति उत्पन्न नहीं होती । अग्नि भी आत्मा से युक्त है क्योंकि स्वयोग्य-अपने अनुकूल आहार प्राप्त होने पर वह वृद्धि प्राप्त करतीहै जैसे एक बच्चा आहार मिलते रहने से बढ़ता जाताहै । वायु भी जीवत्व युक्त है क्योंकि वह गायकी ज्यों किसी की प्रेरणा के बिना ही नियमतः तिर्यक गति करती है-तिरछा चलती है, बहती है । बनस्पतियां चैतन्ययुक्तहै क्योंकि स्त्री के तरह जन्म, वृद्धावस्था, मृत्यु, रुग्णता आदि सभी उसमें दृष्टिगोचर होते हैं । कोई बनस्पति काटकर उप्त करने से उगती है । वह आहार लेती है । उसको दोहद भी होता है । कोई बनस्पति छूने पर सिकुड जाती है । रात में शयन करती है, दिन में जागृत होती है । आश्रय प्राप्त कर बढ़ती है । इन कारणों को देखते हुए बनस्पति का जीवत्व सिद्ध होता है । द्वीन्द्रिय कृमि आदि में चैतन्य है । यह स्पष्ट दिखाई देता है । इन प्राणियों में स्वभावोत्पन्न तथा उपक्रम जनित वेदना को जानकर व्यक्ति मन, वचन तथा काय द्वारा कृतकारित एवं अनुमोदितपूर्वक नौ प्रकार से इनकी हिंसा, इनको पीड़ा देने से निवृत्त रहे । एयं खु णाणिणो सारं, जं न हिंसति कंचण। अहिंसा समयं चेव, एतावंतं विजाणिया ॥१०॥ छाया - एवं खलु ज्ञानिनः सारं यन्न हिनस्ति कञ्चन । ___अहिंसा समय ञ्चैव, एतावन्तं विजाणिया ॥ अनुवाद - ज्ञानी पुरुष के ज्ञान का यही सार-फलवत्ता है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता। अहिंसा का सिद्धान्त इसी आशय से जुड़ा है, यह जानना चाहिये । टीका - एतदेव समर्थयन्नाह-खुशब्दो वाक्या लङ्कारेऽवधारणे वा, एतदेव' अनन्तरोक्तं प्राणातिपातनिवर्तनं 'ज्ञानिनो' जीवस्वरूपतद्वधकर्मबन्धवेदिनः 'सारं' परमार्थतः प्रधानं, पुनरप्यादरख्यापनार्थमेतदेवाह-यत्कञ्चन प्राणिनमनिष्टदुःखं सुखैषिणं न हिनस्ति, प्रभूतवेदिनोऽपि ज्ञानिन एतदेव सारतरं ज्ञानं यत्प्राणातिपातनिवर्तनमिति, ज्ञानमपि तदेव परमार्थ तो यत्परपीडातो निवर्तनं तथा चोक्तम् - "किं ताए पढियाए ? पयकोडीए पलालभूयाए । जत्थित्तियं ण णायं परस्स पीडा न कायव्वा ॥१॥" छाया - किन्तया पठितया पदकोट्यापि पलालभूतया । यत्रैतावन्न ज्ञात परस्य पीडा न कर्त्तव्या ॥१॥ 1473
SR No.032440
Book TitleSutrakritang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
PublisherShwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size21 MB
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