SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 476
Loading...
Download File
Download File
Translation AI Generated
Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
English Translation (preserving Jain terms): The Sutra Kritanga Sutra Observe the living beings (sattva) that are subtle, gross, complete, and incomplete, different in nature, who have come to oneness from the word 'api' (also) indicating the vegetable kingdom. What are they like? - They are afflicted by suffering, arising from the arising of unpleasant feelings, or they torment (duhkham) with the eight types of karma. They are being cooked (paripacyamanah) in the cauldron of the cycle of rebirth with the fuel of their own actions, or they are distressed (artaddhyanopagatan) by their wrongly directed senses, tormented by their mind, speech, and body. In these (beings), the ignorant one (bala), while committing, revolves in the evil karmas. Committing evil deeds excessively, he also makes others commit evil deeds. Explanation: The ignorant being, through acts of violence, oppression, and harassment towards the earth-bodied and other living beings, extensively commits evil deeds. And by instigating others, he also causes them to commit evil deeds. Thus, he experiences suffering both here and hereafter due to the ripening of those evil karmas.
Page Text
________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् सूक्ष्मबादर पर्याप्तकापर्याप्तक भेदभिन्नान् 'सत्वान्' प्राणिनः अपिशब्दाद्वनस्पतिकाये साधारण शरीरिणोऽनन्तानप्येकत्वमागतान् पश्य, किंभूतान् ? - दुःखेन असातवेदनीयोदयरूपेण दुःखयतीति वा दुःखम्अष्ट प्रकारं कर्म तेनार्त्तान् - पीडितान् परि-समन्तात्संसारकटाहोदरे स्वकृतेनेन्धनेन 'परिपच्यमानान्' यदिवादुष्प्रणिहितेन्द्रियानार्तध्यानोपगतान्मनोवाक्कायैः परितप्यमानान् पश्येति सम्बन्धो लगनीय इति ॥४॥ टीकार्थ - साधु स्पर्शन आदि सभी इन्द्रियों को अपने अधीन कर नियन्त्रित कर जितेन्द्रिय बने । किनके संदर्भ में ? इनके उत्तर में कहते हैं कि स्त्रियों के संदर्भ में, पांचों ही शब्दादि विषय विद्यमान है । कहाँ है? स्त्रियों के वाक्य श्रवण करने में बड़े मधुर-प्रिय लगते हैं। उनका चलना, देखना रम्य प्रतीत होते हैं, उनके साथ रमण करना आश्चर्य जनक सुखप्रद है उनके मुखादि का चुम्बन रसमय एवं सुगन्धमय है । इस प्रकार स्त्रियों में पांचों ही विषय होने के कारण साधु को उनके संदर्भ में अपनी सभी इन्द्रियों को संवृत - नियन्त्रित या अपने अधीन रखना चाहिये । इसी का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं- साधु बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही प्रकार के संग-संसर्ग से विप्रमुक्त विशेष रूप से मुक्त, पृथक्, निःसंग, निष्किंचन-अकिंचन मुनि संयम का अनुसरण करे । वह पृथ्वी आदि कायों में पृथक् पृथक् रहने वाले सूक्ष्म, स्थूल, पर्याप्त, अपर्याप्त भेदयुक्त प्राणियों तथा अपि शब्द से, सूचित वनस्पति कायिक साधारण शरीरयुक्त प्राणियों को देखे । वे प्राणी कैसे हैं ? इसके उत्तर में कहते हैं-वे असात वेदनीय के उदय के परिणामस्वरूप दुःखित हैं। आठ प्रकार के कर्मों से आर्तपीडित हैं । वे संसार रूपी कड़ाह में अपने द्वारा आचरित कर्मरूपी ईंधन से पकाये जा रहे हैं अथवा दुष्प्रणिहीत इंद्रिययुक्त हैं- उनकी इन्द्रियां दुष्कृत्यों में संलग्न है । वे आर्त्तध्यान से आकुल हैं। मानसिक, वाचिक एवं कायिक दृष्टि से परिताप का अनुभव करते हैं । यह देखे | एतेसु बाले य पकुव्वमाणे, आवट्टती कम्मसु पावसु । अतिवायतो कीरिति पावकम्मं, निउंजमाणे उ करेइ कम्मं ॥५॥ छाया एतेषु बालश्च प्रकुर्वाणः, आवर्तते कर्मसु पापकेषु । अतिपाततः क्रियते पापकर्म, नियोजयंस्तु करोति कर्म ॥ अनुवाद अज्ञ जीव पृथ्वी काय आदि प्राणियों को पीड़ा देता हुआ पाप कर्म करता है । उन पाप कर्मों का फल भोगने हेतु वह पुनः पुनः पृथ्वीकाय आदि प्राणियों में उत्पन्न होता है। खुद जीवों की हिंसा करने और दूसरों द्वारा वैसा कराने से पाप बंध होता है । टीका - 'एतेषु' प्राङ्गिर्दिष्टेषु प्रत्येक साधारण प्रकारेषूपताप क्रियया बालवत् 'बाल: ' अज्ञश्चशब्दादितरोऽपि सङ्घट्टनपरितापनापद्रावणादिकेनानुष्ठानेन 'पापानि कर्माणि प्रकर्षेण कुर्वाणस्तेषु च पापेषु कर्मसु सत्सु एतेषु वा पृथिव्यादिजन्तुषु गतः संस्तेनैव संघट्टनादिना प्रकारेणानन्तशः 'आवर्त्यते' पीड्यते दुःखभाग्भवतीति, पाठान्तरं वा' एवं तु बाले' एवमित्युपप्रदर्शने यथा चौरः पारदारिको वा असदनुष्ठानेन हस्तपादच्छेदान् बन्धवधादींश्चेहावाप्नोत्येवं सामान्य दृष्टेनानुमानेनान्योऽपि पापकर्मकारी इहामुत्र च दुःखभाग्भवति, 'आउट्टति' त्ति क्वचित्पाठः, तत्राशुभान् कर्मविपाकान् दृष्ट्वा श्रुत्वा ज्ञात्वा वा तेभ्योऽसदनुष्ठानेभ्य 'आउट्टति' त्ति निवर्तते, कानि पुनः पापस्थानानि येभ्यः पुनः प्रवर्तते निवर्तते वा इत्याशङ्कय तानि दर्शयति-'अतिपातत: ' प्राणातिपातत: प्राणव्यपरोपणाद्धेतोस्तच्चाशुभं 448
SR No.032440
Book TitleSutrakritang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
PublisherShwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy