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The **Shri Sutra Kritanga Sutra** states that those who are **Manapriya** (dear to the mind) and are not shaken by **favorable and unfavorable circumstances** (**Praatikul-Apriya Upsargos**) are able to cross the ocean of existence. Others, who are **Vishay-Lolup** (attached to worldly pleasures) and **defeated by temptations** (**Stri Adi Parishas**), are like fish on a burning coal, constantly burning in the fire of **Raga** (attachment) and experiencing **Ashanti** (restlessness).
To explain the benefits of overcoming these temptations, the Sutrakar (author of the Sutra) says:
**"These will cross the ocean, like merchants who cross the sea. Where beings are distressed, they will be freed by their own actions." (18)**
**Commentary:**
Those who have overcome favorable and unfavorable circumstances, as described earlier, will cross the **Ogh** (ocean of existence), which is difficult to cross. This is like a merchant who crosses the **Samudra** (sea) using a boat. Similarly, **Yatis** (ascetics) will cross the ocean of existence using the boat of **Samyama** (self-control). They have already crossed and continue to cross. This **Ogh** is specifically described as the ocean of existence where beings are distressed due to attachment to **Stri** (women) and **Vishaya** (objects of desire). They suffer due to the **Asavendaniya** (unpleasant) results of their **Karma** (actions).
**The Sutrakar then continues with another teaching:**
**"The monk, knowing this, should walk the path of virtue. He should avoid false speech and refrain from taking what is not given." (19)**
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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् मनप्रियः तथा प्रतिकूल-अप्रिय उपसर्गों से कभी अस्थिर नहीं बनते । अन्य पुरुष जो विषयलोलुप हैं, स्त्री आदि परीषहों से पराभूत हो चुके हैं, वे आग के अंगारे पर पड़ी हुई मछली की तरह रागाग्नि में प्रज्वलित होते हुए अशांति में रहते हैं । स्त्री आदि के परीषह को जीतने का क्या फल होता है, यह प्रकट करने के लिए सूत्रकार कहते हैं ।
एते ओघं तरिस्संति, समुदं ववहारिणो । जत्थ पाणा विसन्नासि, किच्चंति सयकम्मुणा ॥१८॥ छाया - एते ओधं तरिष्यन्ति समुद्रं व्यवहारिणः ।
यत्र प्राणाः विषण्णाः कृत्यन्ते स्वककर्मणा ॥ अनुवाद - प्रिय और अप्रिय उपसर्गों को पराभूत कर, महापुरुषों द्वारा सेवित आध्यात्मिक पथ पर गतिशील, धीर स्थिर चेत्ता पुरुष उस संसार को पार कर जाते हैं जिसमें पडे हुए जीव अपने द्वारा आचीर्ण कर्मों के प्रभाव से तरह-तरह के क्लेश भोगते हैं । जैसे एक व्यवहारी-सामुद्रिक व्यवसायी समुद्र को पार कर जाता है, वैसे ही वे अध्यात्म के पथिक जन्म मरण को लांघ जाते हैं।
____टीका - य एते अनन्तरोक्ता अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गजेतार एके सर्वेऽपि 'ओघं' संसारं दुस्तरमपि तरिष्यन्ति, द्रत्यौघदृष्टान्तमाह-'समुद्रं' लवणसागरमिव यथा 'व्यवहारिणः' सांयात्रिका यानपात्रेण तरन्ति, एवं भावौद्यमपि संसारं संयमयानपात्रेण यतयस्तरिष्यन्ति, तथा तीर्णास्तरन्ति चेति, भावौघमेव विशिनष्टि-'यत्र' यस्मिन् भावौघे संसारसागरे 'प्राणा:' प्राणिनः स्त्रीविषयसङ्गाद्विषण्णाः सन्तः कृत्यन्ते' पीड्यन्ते 'स्वकृतेन' आत्मनाऽनुष्ठितेन पापेन "कर्मणा' असवेंदनीयोदयरूपेण ति ॥१८॥
साम्प्रतमुपसंहारव्याजेनोपदेशान्तरदित्सयाह -
टीकार्थ - पहले जो अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्गों को पराभूत करने वाले पुरुषों का वर्णन आया है, वे इस औघ-दुस्तर-जिसे पार करना कठिन है, संसार को पार कर जायेंगे । इस सम्बन्ध में द्रव्य औष का दृष्टान्त कहा जा रहा है-लवण समुद्र में जैसे व्यवहारी-सांघयात्रिक या समुद्री व्यापारी यान पात्र-जहाज द्वारा समुद्र को तैरते हैं, उसी प्रकार भाव औघ-संसार रूपी समुद्र को संयमरूपी जहाज द्वारा संयतिगण-मुनिवृन्द तैर जायेंगे, पार कर देंगे, पहले भी पार किया है, तथा अब भी करते हैं । भाव औघ का विशेष रूप से यह विवेचन है, जिस भाव औघ रूप संसार सागर में प्राणी स्त्री विषयक भोगविलास के कारण विषाद युक्त होते हुए अपने द्वारा किए गए पाप कर्म से असवेंदनीय के उदय के कारण पीड़ा पाते हैं, यातना सहते हैं ।
अब सूत्रकार इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए दूसरा उपदेश देते है । .
च भिक्खू परिण्णाय, सुव्वते समिते चरे । मुसावायं च वजिज्जा, अदिन्नादाणं च वोसिरे ॥१९॥ छाया - तञ्च भिक्षुः परिज्ञाय सुव्रतः समिश्चरेत् । मृषावादञ्च वर्जयेददत्तादनञ्च वटुत्सृजेत् ॥
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