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________________ ५२ ] [ कर्मप्रकृति संक्रमस्थान संक्रांत होता है। जिस प्रकार एक सौ दो प्रकृतिक संक्रमस्थान को बतलाया है उसी तरह पंचानवै प्रकृतिक संक्रमस्थान को भी जानना चाहिये, लेकिन इतना अन्तर है कि एक सौ दो प्रकृतिक संक्रमस्थान के बदले पंचानवै प्रकृतिक संक्रमस्थान कहना चाहिये। तेरानवै प्रकृतियों की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि जीव के देवगतिप्रायोग्य पूर्वोक्त अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधते हुये वैक्रियसप्तक, देवगति और देवानुपूर्वी की बंधावलिका से आगे वर्तमान जीव के तेरानवै प्रकृतिक संक्रमस्थान अट्ठाईस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होता है। : अथवा पंचानवै प्रकृतियों की सत्ता वाले जीव के देवगतिप्रायोग्य पूर्वोक्त अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधते हुये देवगति और देवानुपूर्वी की बंधावलिका के भीतर वर्तमान जीव के तेरानवै प्रकृतिक संक्रमस्थान अट्ठाईस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होता है। अथवा तेरानवै प्रकृतियों की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि जीव के नरकगतिप्रायोग्य पूर्वोक्त अट्ठाईस 'प्रकृतियों को बांधते हुये नरकगति नरकानुपूर्वी और वैक्रियसप्तक की बंधावलिका से परे वर्तमान जीव के तेरानवै प्रकृतिक स्थान अट्ठाईस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होता है। अथवा पंचानवै प्रकृतियों की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि के नरकगतिप्रायोग्य पूर्वोक्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ बांधते हुये नरकगति और नरकानुपूर्वी की बंधावलिका के भीतर वर्तमान जीव के तेरानवै प्रकृतिक संक्रमस्थान अट्ठाईस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होता है। तेरानवै प्रकृतियों की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि के देवगतिप्रायोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधते हुये देवगति, देवानुपूर्वी और वैक्रियसप्तक की बंधावलिका के भीतर वर्तमान जीव के चौरासी प्रकृतिक संक्रमस्थान अट्ठाईस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होता है। अथवा तेरानवै प्रकृतियों की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि के नरकगतिप्रायोग्य पूर्वोक्त अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधते हुये नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रियसप्तक की बंधावलिका के भीतर वर्तमान जीव के चौरासी प्रकृतिक संक्रमस्थान अट्ठाईस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होता है। इस प्रकार अट्ठाईस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होने वाले संक्रमस्थानों को जानना चाहिये। अब छब्बीस प्रकृतिक आदि पतद्ग्रहस्थानों में संक्रांत होने वाले संक्रमस्थानों का कथन करते हैं १. उक्त कथन का आशय यह है कि ९५ प्रकृतियों की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि जीव के नरक प्रायोग्य २८ प्रकृतियों का बंध होने पर २८ में ९५ का संक्रम होता है। अथवा ९५ की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीव के देव प्रायोग्य २८ प्रकृतियों का बंध होने पर २८ प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में ९५ प्रकृतिक स्थान संक्रान्त होता है।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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