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________________ संक्रमकरण ] संहनन, वर्णादिचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, निर्माण, औदारिकशरीर, औदारिकअंगोपांग, सुस्वर-दुःस्वर में से कोई एक, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त-अप्रशस्त विहायोगति में से कोई एक, इन उनतीस प्रकृतियों को बांधते हुए छियानवै प्रकृतिक संक्रमस्थान उनतीस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होता है। छियानवै प्रकृतियों की सत्ता वाले अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तसंयत जीवों के पूर्वोक्त तीर्थंकरनाम सहित देवगतिप्रायोग्य उनतीस प्रकृतियों को बांधते हुए तीर्थंकरनाम की बंधावलिका के नहीं बीतने पर उनतीस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में पंचानवै प्रकृतिक संक्रमस्थान संक्रांत होता है। अथवा पंचानवै प्रकृतियों की सत्तावाले एकेन्द्रियादि जीवों के द्वीन्द्रियादि के योग्य जो तीस प्रकृतियां पहले कही गई हैं, उनमें से उद्योतरहित उन्हीं उनतीस प्रकृतियों को बांधते हुए भी उनतीस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में पंचानवै प्रकृतिक संक्रमस्थान संक्रांत होता है। तेरानवै प्रकृतिक संक्रमस्थान, चौरासी प्रकृतिक संक्रमस्थान और बियासी प्रकृतिक स्थान जिस प्रकार तीस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होते हुए ऊपर कहे हैं, उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिये। अब अट्ठाईस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में संक्रांत होने वाले संक्रमस्थानों का कथन करते हैं – अट्ठाईस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में बियासी और एक सौ तीन प्रकृतिक संक्रमस्थान को छोड़ कर पूर्वोक्त शेष एक सौ दो प्रकृतिक, छियानवै प्रकृतिक, पंचानवै प्रकृतिक और चौरासी प्रकृतिक ये पांच संक्रमस्थान संक्रात होते हैं जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - - मिथ्यादृष्टि नरकगतिप्रायोग्य नरकगति, नरकानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियशरीर, वैक्रियअंगोपांग, हुंडकसंस्थान, पराघात, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर-अस्थिर में से कोई एक, शुभ-अशुभ में से कोई एक, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश:कीर्ति, वर्णादिचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, तैजसशरीर, कार्मणशरीर और निर्माण इन अट्ठाईस प्रकृतियों को तथा मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि जीव के देवगतिप्रायोग्य तैजसशरीर, कामर्णशरीर, वर्णादिचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय बाति, वैक्रियशरीर, वैक्रियअंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर-अस्थिर में से कोई एक, शुभ-अशुभ में से कोई एक, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश:कीर्ति-अयश:कीर्ति में से कोई एक, इन अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधते हुए एक सौ दो प्रकृतियों की सत्ता वाले जीव के एक सौ दो प्रकृतिक संक्रमस्थान अट्ठाईस प्रकृतिरूप पतद्ग्रह में संक्रांत होता है। __ जिसने पूर्व में नरकायु का बंध कर लिया हो और जो नरक में जाने के अभिमुख है और मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त हुआ है ऐसे तीर्थंकरनाम सहित छियानवै प्रकृतियों की सत्ता वाले मनुष्य के नरकगतिप्रायोग्य पूर्वोक्त अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधते हुए अट्ठाईस प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में छियानवै प्रकृतिक
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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