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________________ संक्रमकरण ] [ ३५ इस तरह ९, ५, ४, ३, २, १ प्रकृतिक छह पतद्ग्रहस्थान और २१, २०, १९, १८, १२, ११, ९,८, ६, ५, ३, २ प्रकृतिक १२ संक्रमस्थान क्षायिक सम्यग्दृष्टि के उपशमश्रेणी में होते हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टि २१ प्रकृति की सत्ता वाला होता है और २१ प्रकृतिक संक्रमस्थान ९ प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान में पाया जाता है। अतः प्रारम्भक होने से ९ प्रकृतिक पतद्ग्रहस्थान यहां बताया गया है। क्षपकश्रेणी में क्षायिक सम्यग्दृष्टि के संक्रम और पतद्ग्रह की विधि - अब क्षपकश्रेणी में क्षायिक सम्यग्दृष्टि के संक्रम और पतद्ग्रह की विधि का कथन करते हैं - इक्कीस प्रकृति की सत्तावाला क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव क्षपकश्रेणी पर आरोहण करता है और जब वह अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान को प्राप्त होता है तब उसके पुरुषवेद और संज्वलनचतुष्क रूप पतद्ग्रह पंचक में सर्वप्रथम इक्कीस प्रकृतियां संक्रांत होती हैं। तत्पश्चात् आठ कषायों के क्षय हो जाने पर तेरह प्रकृतियां अन्तर्मुहूर्तकाल तक संक्रांत होती हैं। पुनः अन्तरकरण करने पर संज्वलन लोभ का संक्रम नहीं होता है इसलिये शेष बारह प्रकृतियां इसी पंचक रूप पतद्ग्रह में अन्तर्मुहूर्तकाल तक संक्रांत होती हैं। पुनः नपुंसकवेद के क्षय हो जाने पर ग्यारह प्रकृतियां भी अन्तर्मुहूर्तकाल तक संक्रांत होती हैं। पुनः स्त्रीवेद के क्षय हो जाने पर दस प्रकृतियां भी अन्तर्मुहूर्तकाल तक उसी पंचक रूप पतद्ग्रह में संक्रांत होती हैं। तत्पश्चात् पुरुषवेद की प्रथम स्थिति में एक समय कम दो आवलिकाल शेष रह जाने पर पुरुषवेद भी पतद्ग्रह नहीं रहता है। इसलिये पांच में से उसको कम कर देने पर शेष चतुष्क रूप पतद्ग्रह में वे ही दस प्रकृतियां एक समय कम दो आवलिकाल तक संक्रांत होती रहती हैं। पुनः छह नोकषायों के क्षय हो जाने पर शेष चार प्रकृतियां उसी चतुष्क रूप पतद्ग्रह में संक्रांत होती हैं। तत्पश्चात् पुरुषवेद का क्षय हो जाता है। उस समय संज्वलन क्रोध की भी पतद्ग्रहता नहीं रहती है। इसलिये उसको निकाल देने पर शेष तीन प्रकृतियों में तीन प्रकृतियां अन्तर्मुहूर्तकाल तक संक्रांत होती हैं। तत्पश्चात् एक समय कम दो आवलिकाल से संज्वलन क्रोध क्षीण हो जाता हैं। उस समय संज्वलन मान की भी पतद्ग्रहता नहीं रहती है। इसलिये दो प्रकृतियां दो प्रकृतिरूप पतद्ग्रह में अन्तर्मुहूर्तकाल तक संक्रांत होती हैं। तत्पश्चात् एक समय कम दो आवलिकाल रहने पर संज्वलन मान भी क्षीण हो जाता है। उसी समय संज्वलन माया की भी पतद्ग्रहता नहीं रहती है। इसलिये एक ही संज्वलन लोभ रूप प्रकृति में संज्वलन माया रूप एक प्रकृति संक्रमित होती हैं और अन्तर्मुहूर्तकाल तक संक्रमित होती है। तत्पश्चात् दो आवलिकाल से संज्वलन माया भी क्षय हो जाती है। जिससे उसके ऊपर कोई भी प्रकृति किसी भी प्रकृति में संक्रमित नहीं होती है। क्षपकश्रेणी में क्षायिक सम्यग्दृष्टि के संक्रम और पतद्ग्रह स्थानों का प्रारूप इस प्रकार है
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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