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________________ [ ४५७ परिशिष्ट ] करती हुई उदयजनित विषयों से प्रायः अनासक्त बन जाती है। परिणामस्वरूप पूर्व के कर्म क्षय होने और नवीन कर्मों का संचय स्वल्प होने से वे आत्माएं भवान्त अवस्था को प्राप्त कर लेती हैं। ऐसी अवस्था को अनुदीर्णोपशमना की संज्ञा दी जा सकती है । भवान्त अवस्था भी स्वाभाविक रूप से परिवर्तन होते होते आ जाती है न कि सम्यक्साधना करके अनुदीर्णोपशमना में ऐसी अवस्था लाई जाती है । - २. अकरणकृतोपशमना - अनुदीर्णोपशमना एवं अकरणकृतोपशमना ये दोनों भेद निसर्गता की ओर इंगित करते हैं अर्थात् इस अनादिकालीन विराट संसार के बीच में कई आत्माएं ऐसी भी हुई, हो रही हैं और होंगी जो कि यथाप्रवृत्तादिकरण रूप क्रियाओं के अभाव में भी उपशमना से सम्पन्न बन जाती हैं। काललब्धि के परिपाक होने पर वे आत्माएं स्वाभाविक रूप से कर्मों का उदय आने पर भी उनके प्रति रूचिवान नहीं होती । अतः उनके पूर्व संचित कर्मों का संक्षय एवं नूतन कर्मों का स्वभावतः स्वल्प स्वल्प बंधन होने से अनुदीर्णोपशमना की संज्ञा से अभिव्यंजित हो जाती है। उपर्युक्त दो प्रकार की उपशमनाएं सम्यक् ज्ञानपूर्वक नहीं होने से भगवान की आज्ञा के अन्तर्गत नहीं मानी जा सकती हैं। क्योंकि ये उपशमनाएं अनाभोगपूर्वक होती हैं । उपशमनाकरण गाथा २४ का स्पष्टीकरण विशेष ज्ञान नहीं रखने वाला साहसिक पुरुष ज्ञानावरणीयकर्म के विपाकोदय के सान्निध्य मात्र से उत्पन्न होने वाला बोध सम्यक्त्व का प्रतिबंधक नहीं होता है। क्योंकि सम्यक्त्व का प्रतिबंधक तिथ्यात्व मोहनीय है। एक ही प्रवचन के अर्थ में अभिनिवेश से असद्भूत श्रद्धान में उससे इतर सकल सद्भूतार्थ श्रद्धान भी अश्रद्धान तुल्य होने से गुरुनियोग जनित जो उपदेश है वह उपदेश शिष्य श्रवण करता है । उस शिष्य को उसका यथार्थ बोध नहीं है। ऐसा शिष्य 'तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइंय' के सिद्धान्तानुसार उस पर विश्वास कर लेता है वह मार्गानुसारी कहलाता है क्योंकि वह स्वयं अगीतार्थ है और तथाकथित गीतार्थ के अनभिनिवेश को नहीं समझने के कारण उसको मार्गानुसारी कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि जिनवाणी के एकांश पर भी असद्भूत श्रद्धान करने वाले मिथ्यादृष्टि गुरु के प्रतिपादित सिद्धान्तों पर शिष्य अगीतार्थ होने से इस विश्वास के साथ श्रद्धान करता है कि गुरु महाराज जिनवाणी के अनुरूप ही प्रवचन फरमा रहे हैं । तो ऐसी आत्माओं की असद्भूत अर्थ पर श्रद्धा होते हुए भी उनके मिथ्यात्व की स्थिति नहीं आती है क्योंकि उनमें अभिनिवेश की स्थिति नहीं होती है।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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