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परिशिष्ट ]
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६. अनन्तानुबंधी के उपशमना विधान का स्पष्टीकरण
(उपशमनाकरण गाथा ३१ के सन्दर्भ में) चौथे, पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थान में से किसी एक गुणस्थानवर्ती जीव अनन्तानुबंधी कषाय का उपशम करने के लिये यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक तीन करण करता है।
यथाप्रवृत्तकरण में प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि होती है। जिससे शुभ प्रकृतियों के अनुभाग की वृद्धि और अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग की हानि होती है, किन्तु स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी अथवा गुणसंक्रमण नहीं होते हैं। यथाप्रवृत्तकरण का काल अन्तर्मुहूर्त है।
. यथाप्रवृत्तकरण का काल समाप्त होने पर दूसरा अपूर्वकरण होता है। इसमें स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रमण और अपूर्वस्थितिबंध ये पांचों कार्य होते हैं। अपूर्वकरण के प्रथम समय में कर्मों की जो स्थिति होती हैं स्थितिघात के द्वारा अंतिम समय में वह संख्यात गुणी हीन कर दी जाती है। रसघात द्वारा अशुभ प्रकृतियों का रस क्रमशः क्षीण कर दिया जाता है, गुणश्रेणी रचना में प्रकृतियों की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति को छोड़कर ऊपर की स्थिति वाले दलिकों में से प्रतिसमय कुछ दलिक ले लेकर उदयावलिका के ऊपर की स्थिति वाले दलिकों में उनका निक्षेप कर दिया जाता है। वह इस प्रकार, पहले समय में जो दलिक लिये जाते हैं, उनमें से सबसे कम दलिक प्रथम समय में स्थापित किये जाते हैं, उससे असंख्यात गुणे दलिक दूसरे समय में, उससे असंख्यात गुणे दलिक तीसरे समय में स्थापित किये जाते हैं। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल के अंतिम समय तक असंख्यात गुणे असंख्यात गुणे दलिकों का निक्षेप किया जाता है।
दूसरे आदि समयों में भी जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं उनका निक्षेप भी इसी प्रकार किया जाता है। लेकिन इतना विशेष है कि गुणश्रेणी की रचना के लिये पहले समय में जो दलिक ग्रहण किये जाते हैं वे अल्प होते हैं और उसके पश्चात प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे दलिकों का ग्रहण किया जाता है। तथा दलिकों का निक्षेप अवशिष्ट समयों में ही किया जाता है, अन्तर्मुहूर्त काल से ऊपर के समयों में नहीं किया जाता है।
गुणसंक्रमण के द्वारा अपूर्वकरण के प्रथम समय में अनन्तानुबंधी आदि अशुभ प्रकृतियों के अल्प दलिकों का अन्य प्रकृतियों में संक्रमण होता है। तत्पश्चात् प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर असंख्यात गुणे दलिकों का अन्य प्रवृतियों में संक्रमण होता है तथा अपूर्वकरण के प्रथम समय से ही स्थितिबंध भी अपूर्व अर्थात् सर्वस्तोक होता है। अपूर्वकरण का काल (समय) समाप्त होने पर तीसरा अनिवृत्तिकरण होता है। इसमें भी प्रथम समय से ही पूर्वोक्त स्थितिघात आदि पांचों कार्य एक साथ होने लगते हैं। इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त