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________________ सत्ताप्रकरण ] [ ३९९ . इस प्रकार सामान्य से स्पर्धकों के लक्षण का विचार किया गया। अब उद्वलन योग्य प्रकृतियों के स्पर्धकों को वतलाते हैं कि 'एगं उव्वलमाणि' अर्थात् उद्वलन की जाने वाली तेईस प्रकृतियों का एक एक स्पर्धक होता है। उनमें से पहले सम्यक्त्वप्रकृति के लिये विचार करते अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिसत्व वाला कोई जीव त्रसों में उत्पन्न हुआ, वहां सम्यक्त्व को और देशविरति को अनेक बार प्राप्त कर और चार बार मोहनीय कर्म को उपशमा कर तथा एक सौ बत्तीस सागरोपम तक सम्यक्त्व का परिपालन कर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् दीर्घ उद्वलना काल से सम्यक्त्व का उद्वलन करते हुए जब चरमखंड संक्रान्त किया और एक उदयावलिका शेष रहती है तब उसे भी स्तिबुकसंक्रमण के द्वारा मिथ्यात्व में संक्रान्त करता है और संक्रान्त करते हुए जो दो समय मात्र अवस्थान वाली एक स्थिति जब शेष रहती है तब वह सम्यक्त्व प्रकृति का जघन्य प्रदेशसत्वस्थान है। तत्पश्चात् नाना जीवों की अपेक्षा एक एक प्रदेश की वृद्धि से प्रदेशसत्वस्थान तब तक ले जाना चाहिये जब तक गुणितकर्मांश जीव का उत्कृष्ट प्रदेशसत्वस्थान प्राप्त होता है। इन सब प्रदेशसत्वस्थानों का समुदाय एक स्पर्धक कहलाता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व के भी प्रदेशसत्वस्थान और इसी प्रकार यश:कीर्ति के एक स्पर्धक का कथन जानना चाहिये एवं इसी तरह शेष जो उद्वलन के योग्य वैक्रियएकादशक, आहारकसप्तक, उच्चगोत्र और मनुष्यद्विक ये इक्कीस प्रकृतियां हैं, उनके भी प्रदेशसत्वस्थान और स्पर्धक जानना चाहिये। लेकिन इतना विशेष है कि एक सौ बत्तीस सागरोपम प्रमाण सम्यक्त्व का काल मूल में नहीं कहना चाहिये। लोभ जसा इत्यादि अर्थात् संज्वलनलोभ और यश:कीर्ति का भी एक स्पर्धक होता है। वह इस प्रकार से जानना चाहिये, वही अभवसिद्धिकप्रायोग्य जघन्य स्थितिसत्व वाला कोई जीव त्रसों में उत्पन्न हुआ और वहां पर चार बार मोहनीय कर्म के उपशम के बिना शेष क्षपितकांश की सभी क्रियाओं द्वारा बहुत से कर्मदलिक का क्षय करके और दीर्घ काल तक संयम का पालन करके कर्म क्षपण के लिये उद्यत हुआ, उस क्षपक को यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में जघन्य प्रदेशसत्व होता है। तत्पश्चात् वहां से आरम्भ करके नाना जीवों की अपेक्षा एक एक प्रदेश की वृद्धि से निरन्तर प्रदेशसत्वस्थान तब तक कहना चाहिये जब तक गुणितकर्मांश जीव का उत्कृष्ट प्रदेशसत्वस्थान प्राप्त होता है। इस प्रकार संज्वलन लोभ और यश कीर्ति का एक एक स्पर्धक जानना चाहिये। 'नोकसायाणं' अर्थात् छह नोकषायों का भी प्रत्येक का एक एक स्पर्धक होता है और वह इस प्रकार है – वही अभवसिद्धिकप्रायोग्य जघन्य प्रदेशसत्व वाला कोई जीव त्रसों में उत्पन्न
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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