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________________ ३९८ ] [ कर्मप्रकृति हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - ___'वे उ आवलिया...' इत्यादि अर्थात् सम्पूर्ण योगस्थान के समुदाय को दो समय कम दो आवलिकाओं के द्वारा गुणित किया जाये और गुणित करने पर जितने सम्पूर्ण योगस्थानों का समुदाय होता है, उतने स्पर्धक अधिक होते हैं, यानी दो समय कम दो आवलिका के समय प्रमाण अधिक होते हैं। वे इस प्रकार हैं – पुरुषवेद के बंध, उदय आदि के विच्छेद होने पर दो समय कम दो आवलिकाबद्ध पुरुषवेद के दलिक विद्यमान रहते हैं। इसलिये अवेदक होते हुए उस क्षपक जीव के संज्वलनत्रिक में कहे गये प्रकार से योगस्थानों की अपेक्षा दो समय कम दो आवलिका समय प्रमाण स्पर्धक जानना चाहिये। ऊपर कहे गये और आगे कहे जाने वाले स्पर्धकों का सामान्य रूप से लक्षण कहते हैं - सव्वजहन्नाढत्तं, खंधुत्तरओ निरंतरं उप्पिं। ___एगं उव्वलमाणि, लोभ जसा नोकसायाणं ॥४७॥ शब्दार्थ - सव्वजहन्नाढत्तं - सर्वजघन्य (प्रदेशसत्वस्थान) से आरम्भ करके, खंधुत्तरओ- उत्तर में एक एक स्कंध से, निरंतरं – निरन्तर, उप्पिं - ऊपर (आगे) एगं - एक, उव्वलमाणि - उद्वलन योग्य, लोभ जसा – संज्वलनलोभ, यशकीर्ति, नोकसायाणं - नोकषायों का। गाथार्थ – सर्वजघन्य प्रदेशसत्वस्थान से आरम्भ करके आगे सर्वोत्कृष्ट स्थान पर्यन्त निरन्तर रूप से उत्तर में एक एक स्कंध से अधिक प्रदेशसत्वस्थान जानना चाहिये। उद्वलन योग्य (तेईस) प्रकृतियों, संज्वलन-लोभ, यशःकीर्ति और छह नोकषायों का एक एक स्पर्धक होता है। विशेषार्थ – सर्वजघन्य प्रदेशसत्वस्थान से आरम्भ कर एक एक कर्मस्कंध के द्वारा उत्तरतः अर्थात् पूर्व पूर्व कर्मस्कंध से आगे आगे बढ़ता हुआ प्रदेशसत्वस्थान तब तक निरन्तर बढ़ाते हुए कहना चाहिए, जब तक कि उप्पिं-अर्थात् उपरितन सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्वस्थान प्राप्त होता है। इसका भावार्थ यह है कि-सर्वजघन्यं प्रदेशसत्वस्थान से आरम्भ करके योगस्थानों की अपेक्षा एक एक कर्मस्कंध से बढ़ाते हुए प्रदेशसत्वस्थान तब तक निरन्तर कहना चाहिए जब तक उत्कृष्ट प्रदेशसत्वस्थान प्राप्त होता है। यहां एक एक कर्मस्कंध से उत्तरोत्तर वृद्धि का जो कथन किया है, वह योगस्थान के वश से प्राप्त होने वाले स्पर्धकों की अपेक्षा से कहा है, अन्यथा चरमावलि पविट्ठा इत्यादि में जो स्पर्धक कहे हैं, उनमें एक एक प्रदेश से उत्तरोत्तर वृद्धि प्राप्त होती है।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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