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________________ ३६० ] [ कर्मप्रकृति पाया जाता है। वेदकसम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व के क्षय होने पर तेईस प्रकृतिक सत्वस्थान होता है और उसी वेदकसम्यग्दृष्टि के सम्यग्मिथ्यात्व के क्षय होने पर २२ प्रकृतिक और सम्यक्त्वमोह के क्षय हो जाने पर क्षायिक सम्यग्दृष्टि के इक्कीस प्रकृतिक सत्वस्थान पाया जाता है। देशविरति - प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत गुणस्थान – इन तीन गुणस्थानों में भी अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में बताये गये अट्ठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस और इक्कीस प्रकृतिक ये पांच प्रकृतिसत्वस्थान जानना चाहिये तथा उनके होने के कारणों को पूर्ववत् समझना चाहिये। अपूर्वकरण गुणस्थान – 'अह दोन्नि त्ति' अर्थात् सप्तमगुणस्थान के अनन्तर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में दो प्रकृतिसत्वस्थान होते हैं, यथा – चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक। इनमें से उपशमश्रेणी को प्राप्त जीव के चौबीस प्रकृतिक सत्वस्थान होता है। और क्षायिक सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा दोनों ही श्रेणियों में इक्कीस प्रकृतिक सत्वस्थान होता है। अनिवृत्तिबादर संपराय गुणस्थान – दस प्रकृति सत्वस्थान होते हैं, यथा - चौबीस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो, एक प्रकृतिक। इनमें से उपशमश्रेणी की अपेक्षा चौबीस प्रकृतिक सत्वस्थान होता है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि के दोनों श्रेणियों में इक्कीस प्रकृतिक सत्वस्थान होता है और शेष आठ स्थान क्षपकश्रेणी में होते हैं। जिनकी व्याख्या पहले कर दी गई है। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान - तीन प्रकृति सत्वस्थान होते हैं, यथा - चौबीस, इक्कीस और एक प्रकृतिक। इनमें से चौबीस प्रकृतिक स्थान क्षायिक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि के और इक्कीस प्रकृतिक सत्वस्थान क्षायिक सम्यग्दृष्टि को होता है। ये दोनों प्रकृतिक सत्वस्थान उपशमश्रेणी में होते हैं और एक प्रकृतिक सत्वस्थान क्षपकश्रेणी में होता है। उपशांतमोह गुणस्थान - दो प्रकृति सत्वस्थान होते हैं, यथा – चौबीस प्रकृतिक और इक्कीस प्रकृतिक। इन दोनों सत्वस्थानों की व्याख्या पूर्वोल्लेखानुसार समझ लेना चाहिये। अब इन प्रकृति सत्वस्थानों के सम्बंध में एक मतान्तर का उल्लेख करते हैं - संखीणदिट्ठिमोहे, केई पणवीसई पि इच्छंति। संजोयणाण पच्छा, नासं तेसिं उवसमं च॥ १३॥ शब्दार्थ – संखीणदिद्विमोहे – दर्शनमोहनीय का क्षय हो जाने पर, केई - कितने ही, पणवीसई - पच्चीस प्रकृतिक, पि - भी, इच्छंति - मानते हैं, संजोयणाण – संयोजना (अनन्तानुबंधी) का, पच्छा – पीछे, नासं – क्षय (नाश), तेसिं - उसका, उवसमं - उपशाम, च - और।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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