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________________ सत्ताप्रकरण ] [ ३५९ अब मोहनीयकर्म के उक्त प्रकृतिसत्वस्थानों का गुणस्थानों में विचार करते हैं - तिन्नेग तिगं पणगं, पणगं, पणगं च पणगमह दोन्नि। दस तिन्नि दोन्नि मिच्छा - इगेसु जावोवसंतोत्ति॥ १२॥ शब्दार्थ – तिन्नेग – तीन, एक, तिगं – तीन, पणगं – पांच, पणगं – पांच, पणगं - पांच, च – और, पणगं -- पांच, अह – अनन्तर, दोन्नि – दो, दस – दस, तिन्नि – तीन, दोन्नि – दो, मिच्छाइगेसु - मिथ्यात्व को आदि लेकर, जाव - तक, उवसंतोत्ति - उपशांतमोहगुणस्थान। गाथार्थ – मिथ्यात्व को आदि लेकर उपशांतमोहगुणस्थान पर्यन्त क्रम से तीन, एक, तीन, पांच, पांच, पांच, पांच, दो, दस तीन और दो सत्वस्थान होते हैं। विशेषार्थ – उपशांतमोहगुणस्थान तक मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में यथाक्रम से तीन आदि प्रकृति सत्कर्म स्थान होते हैं। जिनका स्पष्टीकरण क्रम से नीचे लिखे अनुसार जानना चाहियेमिथ्यादृष्टि गुणस्थान – तीन प्रकृति सत्वस्थान होते हैं, यथा – अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक। इनकी व्याख्या पूर्व गाथा में की जा चुकी है। सास्वादन गुणस्थान - अट्ठाईस प्रकृतिक एक सत्वस्थान होता है। सम्यगमिथ्यादृष्टि गुणस्थान – तीन प्रकृति सत्वस्थान होते हैं, यथा – अट्ठाईस, सत्ताईस' और चौबीस प्रकृति। यहां जो अट्ठाईस प्रकृति की सत्तावाला होकर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, उसकी अपेक्षा अट्ठाईस प्रकृतिक सत्वस्थान होता है और जिसने मिथ्यादृष्टि होते हुए पहले सम्यक्त्व की उद्वलना कर दी और पुनः सत्ताईस की सत्तावाला होता हुआ सम्यग्मिथ्यात्व का अनुभव प्रारम्भ करता है, उसके सत्ताईस प्रकृतिक सत्वस्थान होता है। चौबीस प्रकृतियों की सत्तावाले जीव के सम्यग्मिथ्यात्वदृष्टि होने की अपेक्षा चौबीस प्रकृतिक सत्वस्थान प्राप्त होता है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान – पांच प्रकृति सत्वस्थान होते हैं, यथा – अट्ठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस और इक्कीस प्रकृतिक। इनमें से अट्ठाईस प्रकृतिक सत्वस्थान औपशमिक सम्यग्दृष्टि के अथवा क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के पाया जाता है। अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाले वेदक सम्यग्दृष्टि के अथवा औपशमिक सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबंधीचतुष्क के क्षय होने पर चौबीस प्रकृतिक सत्वस्थान १. दिगम्बर कर्म ग्रन्थों में सम्यग्मिथ्यात्दृष्टि के २७ प्रकृतिक सत्वस्थान नहीं कहा है।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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