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________________ उदयप्रकरण ] [ ३४५ विशेषार्थ अल्पबंधाद्धा अर्थात् अल्प बंधकाल और अल्प योग से संचित अर्थात् बांधे हुए चारों आयु कर्मों की ज्येष्ठ स्थिति (उत्कृष्ट स्थिति) के अंत में उपरितन सर्वोपरि समय में सबसे अल्प दलिक निक्षेप करने पर चिरकाल तक तीव्र असाता की वेदना से पीड़ित क्षपितकर्यांश और उस उस आयु का वेदन करने वाले जीवों के तत्तत् आयुकर्म का जघन्य प्रदेशोदय होता है । इसका कारण यह है कि तीव्र असाता की वेदना से अभिभूत जीवों के बहुत पुद्गल निर्जीण हो जाते हैं । इसी आशय को स्पष्ट करने के लिये गाथा में चिर तीव्र 'असातावेदी' पद का ग्रहण किया गया है तथा संजोयणा विजोजिय, देवभवजहन्नगे अइनिरुद्धे । बंधिय उक्कस्सठिई, गंतुणेगिंदियासन्नी ॥ २९ ॥ सव्वलहुं नरयगए, निरयगई तम्मि सव्वपजत्ते । अणुपुवीओ य गई-तुल्ला नेया भवादिम्मि ॥ ३० ॥ शब्दार्थ - संजोयणा अनन्तानुबंधी, विजोजिय - विसंयोजना करके, देवभवजहन्नगेजघन्य स्थिति वाले देवभव में, अनिरुद्धे - अतिनिरुद्धकाल (अन्त्य अन्तर्मुहूर्तकाल ) में, बंधिय बांधकर, उक्कस्सठिई - उत्कृष्ट स्थिति को, गंतुणेगिंदियासन्नी – एकेन्द्रिय होकर, असंज्ञी में उत्पन्न होकर । — — सव्वलहुँ सर्वलघुकाल में, नरयगए नरक में जाकर, निरयगई नरकगति का, तम्मि— उसमें वहां, सव्वपज्जत्ते - सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त होने वाले के, अणुपुवीओ - आनुपूर्वियों और, गईतुल्ला - गति के तुल्य, नेया - जानना चाहिये, भवादिम्मि भव के आदि - का, य समय में । गाथार्थ अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करके जघन्य स्थिति वाले देव भव में उत्पन्न होकर अंतिम अन्तर्मुहूर्तकाल में मिथ्यात्वी होकर उत्कृष्ट स्थिति से एकेन्द्रियप्रायोग्य प्रकृतियों को बांधकर और एकेन्द्रिय होकर पुन: असंज्ञी पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होकर सर्वलघुकाल में नरक में जाकर नारक हो, वहां पर सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त होने वाले के नरकगति का जघन्य प्रदेशोदय होता है । आनुपूर्वियों का जघन्य प्रदेशोदय अपनी अपनी गति के तुल्य भव के प्रथम समय में जानना चाहिये । विशेषार्थ – संयोजनाओं की अर्थात् अनन्तानुबंधी कषायों की विसंयोजना करके (क्योंकि इनकी विसंयोजना होने पर शेष कर्मों के भी बहुत से पुद्गल निर्जीण होते हैं, इसलिये यहां विसंयोजना ग्रहण किया है) जघन्य स्थिति वाले देवत्व को प्राप्त हुआ। वहां अति निरुद्धकाल में अर्थात् अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में मिथ्यात्व को प्राप्त हो एकेन्द्रिय प्रायोग्य प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को बांधकर सर्व
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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