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________________ ३३८ ] [ कर्मप्रकृति गुणश्रेणी करता है । तत्पश्चात् उन करण परिणामों के समाप्त होने पर संक्लेश युक्त हो कर पुन: अविरति को प्राप्त हुआ, तब उसके तीनों ही गुणश्रेणियों के शीर्ष पर वर्तमान और उसी भव में स्थित उस अविरतिसम्यग्दृष्टि के दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति और नीचगोत्र का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । यदि वह बद्धायुष्क होने से नरकों में नारक हुआ तो उसके नरकद्विक सहित पूर्वोक्त प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। यदि वह तिर्यंचों में बद्धायुष्क होने से तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ तो उसके तिर्यद्विक सहित पूर्वोक्त प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है और यदि वह मनुष्यों में बद्धायुष्क होने से मनुष्यों में उत्पन्न हुआ तो उसके मनुष्यानुपूर्वी सहित उन पूर्वोक्त प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है तथा - संघयणपंचगस्स य, बिइयादीतिन्नि होंति गुणसेढी । आहारगउज्जोया - णुत्तरतणु अप्पमत्तस्स ॥ १८ ॥ शब्दार्थ - संघयणपंचगस्स संहननपंचक, य - और, बिइयादी - द्वितीयादि, तिन्नितीन, होंति – होती हैं, गुणसेढी गुणश्रेणी, आहारग उद्यो आहारकशरीर, उज्जोयाण उत्तर शरीर में वर्तमान, अप्पमत्तस्स अप्रमत्त के। का, उत्तरतणु गाथार्थ - द्वितीयादि तीन गुणश्रेणियों के शीर्ष पर वर्तमान जीव के अशुभ संहननपंचक का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । उत्तर आहारकशरीर में वर्तमान अप्रमत्त के आहारकशरीर और उद्योत का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । - विशेषार्थ – कोई मनुष्य देशविरति को प्राप्त हुआ, तब वह देशविरति निमित्तक गुणश्रेणी करता है। तत्पश्चात् वही विशुद्धि के प्रकर्ष से सर्वविरति को प्राप्त हुआ, तब सर्वविरति निमित्तक गुणश्रेणी को करता है और तत्पश्चात् वही जीव उस प्रकार की विशुद्धि के प्रकर्ष से अनन्तानुबंधी कषायों की विसंयोजना के लिये उद्यत हुआ, तब तन्निमित्तक गुणश्रेणी करता है । इस प्रकार द्वितीय आदि तीन गुणश्रेणियां होती हैं । उनको करके और उनके शीर्षों पर वर्तमान उस मनुष्य के प्रथम संहनन छोड़कर यथायोग्य उदय को प्राप्त पांचों संहननों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । 'उत्तरतणु' इत्यादि अर्थात् उत्तर आहारकशरीर में वर्तमान अप्रमत्त भाव को प्राप्त और प्रथम गुणश्रेणी के शीर्ष पर वर्तमान ऐसे उस संयत के आहारकसप्तक और उद्योत नाम का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है तथा - बेइंदिय थावरगो, कम्मं काऊण तस्समं खिप्पं । आयावस्स उ तव्वेइ, पढमसमयम्मि वट्टंतो ॥ १९॥
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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