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________________ ३०४ ] [ कर्मप्रकृति छोड़ कर शेष किट्टियों की उदीरणा करता है। . विशेषार्थ – शेषाद्धा अर्थात् शेषकाल के तीसरे त्रिभाग में वह उपशामक सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान वाला होता है और पहले की हुई कितनी ही किट्टियों का द्वितीय स्थिति से आकर्षण कर सूक्ष्म संपराय काल के समान प्रमाण वाली प्रथम स्थिति करता है। किट्टिकरणाद्धा की अंतिम आवलिका मात्र को स्तिबुकसंक्रम से संक्रमाता है तथा प्रथम और अंतिम समय में की गई किट्टियों को छोड़ कर शेष किट्टियां सूक्ष्म संपराय काल के प्रथम समय में उदय को प्राप्त होती है तथा 'वज्जिय असंखभागं' इत्यादि अर्थात् चरम समय कृत किट्टियों के नीचे असंख्यातवें भाग प्रमाण और प्रथम समय कृत किट्टियों के ऊपर असंख्यातवें भाग प्रमाण किट्टियों को छोड़ कर शेष किट्टियों की उदीरणा करता है तथा - गिण्हंतो य मुयंतो, असंखभागं तु चरम समयम्मि। उवसामेइय बिईय, ठिई पि पुव्वं व सव्वद्धं॥५५॥ शब्दार्थ – गिण्हतो – ग्रहण करता हुआ, य - और, मुयंतो – छोड़ता हुआ, असंखभागं- असंख्यातवें भाग को, तु - और, चरम समयम्मि – चरम समय तक, उवसामेइय - उपशमाता है, बिईय - दूसरी, ठिई - स्थितिगत (दलिक) को, पि - भी, पुव्वं व – पूर्व की तरह, सव्वद्धं – सर्वकाल तक।। .. गाथार्थ – (सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान काल के) अंतिम समय तक किट्टियों के असंख्यातवें भाग को ग्रहण करता और छोड़ता हुआ सम्पूर्ण काल तक द्वितीय स्थितिगत दलिक को पूर्ववत् उपशमाता है। विशेषार्थ – द्वितीय समय में उदय प्राप्त किट्टियों के असंख्यातवें भाग को छोड़ता है, अर्थात् उपशान्त हो जाने पर उदय में नहीं देता है और अपूर्वकरण असंख्यातवें भाग को अनुभव करने के लिये उदीरणा के द्वारा ग्रहण करता है। इस प्रकार किट्टियों के असंख्यातवें भाग को ग्रहण करता व छोड़ता हुआ तब तक जानना चाहिये जब तक कि सूक्ष्मसंपराय काल का चरम समय प्राप्त होता है तथा द्वितीय स्थितिगत दलिक को भी सूक्ष्मसंपराय काल के प्रथम समय से लेकर सर्वाद्धा अर्थात् समस्त सूक्ष्म संपराय के काल तक पूर्व के समान उपशमाता है और समयोन आवलिकाद्विकबद्ध दलिक को भी उपशमाता है । सूक्ष्म संपराय काल के चरम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्म का स्थितिबंध अन्तर्मुहूर्त प्रमाण, नाम और गोत्र का सोलह मुहूर्त प्रमाण और वेदनीय का चौबीस मुहूर्त प्रमाण स्थितिबंध होता है। उसी के चरम समय में सभी मोहनीय कर्म उपशान्त हो जाते हैं और उसके अनन्तर समय में वह उपशांतमोह गुणस्थान को प्राप्त होता है।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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