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________________ उपशमनाकरण ] अहवा शब्दार्थ उवसामइत्तु - उपशमित करके, सामन्ने आवलिका प्रमाण, करेइ - — - [ २८३ दर्शनमोहनीय को, पुव्वं पूर्व में, अथवा, दंसणमोहं श्रमण पर्याय में, पढमठिइं प्रथम स्थिति में, आवलियं करता है, दोहं – दोनों, अणुदियाणं - अनुदित प्रकृतियों की । गाथार्थ अथवा श्रमणपर्याय में पूर्व में दर्शनमोह को उपशमित करके दोनों अनुदित प्रकृतियों की प्रथम स्थिति आवलिका प्रमाण करता है । - - विशेषार्थ अथवा यानि प्रकारान्तर से इस मनुष्य भव में यदि वेदक सम्यग्दृष्टि होता हुआ उपशम श्रेणी को प्राप्त होता है तो नियम से दर्शनमोहनीयत्रिक को पहले उपशमाता है और वह श्रामण्य में श्रमण पर्याय में स्थित होता हुआ उपशमाता है, जैसा कि कहा है श्रामण्य-संयम में स्थित होता हुआ पहले तीनों दर्शनमोहनीय कर्मों को उपशमाता है। यहां पर सभी उपशमना विधि पहले के समान तीन करणों के अनुसार जानना चाहिये। लेकिन इतना विशेष है कि अन्तरकरण को करता हुआ अनुदित (उदय को नहीं प्राप्त) मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व की प्रथमस्थिति आवलिका प्रमाण करता है और सम्यक्त्व की प्रथम स्थिति को अन्तर्मुहूर्त प्रमाण करता है । अन्तरकरण संबंधी तीनों ही कर्मों के उत्कीर्यमाण दलिक को सम्यक्त्व की प्रथमस्थिति में प्रक्षिप्त करता है। शेष वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिये । दर्शनमोहनीय की तीनों प्रकृतियों का उपशम करके क्या करता ? अब इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये कहते हैं - अद्धापरिवित्तीओ, पमत्त इयरे सहस्ससो किच्चा । करणाणि तिन्नि कुणए, तइयविसेसे इमे सुणसु ॥ ३४॥ शब्दार्थ अद्धापरिवित्तीओ अद्धापरिवर्तनों को, पमत्त प्रमत्त, इयरे (अप्रमत्त) में, सहस्ससो हजारों, किच्चा करके, करणा करणों, तन्नि करता है, इय तीसरे, विसेसे - विशेषता, इमे – यह, सुणसु – सुनो। गाथार्थ करता है । तीसरे करण में जो विशेषता है, उसे सुनो। कुणए 1 - - - — - - — ― - इतर तीनों, - प्रमत्त और अप्रमत्त भाव में हजारों अद्धा परिवर्तनों को करके तीनों करणों को विशेषार्थ संक्लेश और विशुद्धि के वश प्रमत्तभाव में और इतर अर्थात् अप्रमत्तभाव में सहस्रों अद्धापरिवृत्ति अर्थात् काल परिवर्तन करके चारित्रमोहनीय के उपशमन के लिये यथाप्रवृत्त आदि तीनों करणों को करता है। उनका स्वरूप पूर्व के समान जानना चाहिये, लेकिन तीसरे अनिवृत्तिकरण में जो विशेषताएं हैं, उनको यथाक्रम से नीचे स्पष्ट करते हैं
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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