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________________ २८२ ] [ कर्मप्रकृति इस प्रकार दर्शनमोहनीय की क्षपणा का प्रस्थापक मनुष्य होता है और निष्ठापक चारों ही गतियों में होता है । कहा भी है पट्ट्ठवगो य मणुस्सो निट्ठवगो चउसु वि गईसु । अर्थात् दर्शनमोहनीय की क्षपणा का प्रस्थापक तो मनुष्य ही होता है, किन्तु निष्ठापक चारों ही गतियों में होता है । प्रश्न उक्त सातों प्रकृतियों का क्षपण करने वाला मनुष्य अन्य गति में जाता हुआ कितने समय में मोक्ष प्राप्त करता है ? उत्तर तीसरे या चौथे भव में मोक्ष प्राप्त करता है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि यदि वह देवगति या नरकगति को जाता है तो देव भव से अन्तरित होकर या नरक भव से अन्तरित होकर तीसरे भव में मोक्ष प्राप्त करता है और यदि वह तिर्यंच या मनुष्यों में उत्पन्न होता है तो अवश्य ही असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोगभूमिजों में उत्पन्न होता है, संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिजों में उत्पन्न नहीं होता है । इसलिये उस भव के अनन्तर देवभव में जाता है और उस देवभव से च्युत होकर मनुष्यभव में आता है और उस भव से मोक्ष जाता है । इस प्रकार चौथे भव से मोक्षगमन होता है। कहा है कि - तइय चउत्थे तम्मि व भवम्मि सिज्झति दंसणे खीणे । जं देव निरइ असंखाउ चरमदेहेसु ते होंति ॥ अर्थात् दर्शनमोहनीय के क्षीण हो जाने पर कोई चरम शरीरी मनुष्य उसी भव में सिद्ध हो जाता है, कितने ही जीव तीन भव में जो कि देव या नरक गति में जाते हैं और जो असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य या तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं, वे चौथे भव में सिद्ध होते हैं । यदि क्षीणसतक पूर्वबद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उस समय मरण नहीं करता है तो बाक कोई जीव वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है और चारित्रमोहनीय के उपशमन के लिये उद्यत होता है और यदि वह अबद्वायुष्क है तो उक्त सातों प्रकृतियों के क्षय करने के अनन्तर क्षपक श्रेणी को ही प्राप्त होता है । अब उपशमश्रेणी को प्राप्त करने के इच्छुक का ही प्रकारान्तर से वर्णन करते हैं अहवा दंसणमोहं, पुव्वं उवसामइत्तु सामन्ने । पढमठिइमावलियं, करेइ दोण्हं अणुदियाणं ॥ ३३ ॥
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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