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________________ उपशमनाकरण ] [ २६७ अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय जो जीव वर्तमान हैं या जो पूर्व में वर्तमान थे और जो आगे वर्तमान होंगे, उन सभी जीवों की विशुद्धि एक समान होती है, दूसरे समय में भी जो वर्तमान हैं, जो वर्तमान थे और वर्तमान होंगे, उन सभी जीवों की विशुद्धि भी परस्पर समान होती है। लेकिन विशेषता यह है कि प्रथम समय में होने वाले विशुद्धि की अपेक्षा दूसरे समय में होने वाले विशुद्धि अनंतगुणी होती है। इस प्रकार तब तक कहना चाहिये जब तक अनिवृत्तिकरण का चरम समय प्राप्त होता है। इसलिये इस करण में समान काल में प्रविष्ट हुए जीवों के अध्यवसायों की परस्पर जो निवृत्ति अर्थात् व्यावृत्ति या विभिन्नता है, वह नहीं होती है। इसी कारण इस करण का अनिवृत्तिकरण यह सार्थक नाम है - ... अस्मिन् करणे प्रविष्टानां तुल्यकालानामसुमतां परस्परमध्यवसानानां या निवृत्तिावृत्तिः सा न विद्यते इत्यनिवृत्तिकरणमितिनाम। इस अनिवृत्तिकरण में जितने समय होते हैं, उतने ही अध्यवसायस्थान होते हैं और वे पूर्वपूर्व से अनंतागुणी (विशुद्धिक) वृद्धि वाले होते हैं। इसके अतिरिक्त 'संखिज इमे सेसे' इत्यादि अर्थात् अनिवृत्तिकरण काल के संख्यात बहु भागों के व्यतीत हो जाने पर और एक संख्यातवें भाग के शेष रहने पर अन्तर्मुहूर्त मात्र काल नीचे छोड़ कर मिथ्यात्व का अन्तरकरण करता है। यह अन्तरकरण काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, जो प्रथम स्थिति से कुछ कम है और नवीन स्थितिबंध काल के समान है, वह इस प्रकार समझना चाहिये कि - अन्तरकरण करने के प्रथम समय में ही मिथ्यात्व के अन्य स्थितिबंध को आरंभ करता है और स्थितिबंध तथा अन्तरकरण को एक साथ ही समाप्त करता है। अन्तरकरण किये जाने के समय गुणश्रेणी के संख्यातवें भाग को अन्तरकरण के दलिक के साथ उत्कीर्ण करता है और उत्कीर्ण किये जाने वाले दलिक को प्रथमस्थिति और द्वितीयस्थिति में प्रक्षिप्त करता है। अन्तरकरण से नीचे की स्थिति प्रथमस्थिति और ऊपर की स्थिति द्वितीयस्थिति कहलाती है - अन्तरकरणच्चाधस्तनी प्रथमास्थितिःरित्युच्यते, उपरितनी तु द्वितीया। प्रथम स्थिति में वर्तमान जीव उदीरणा प्रयोग के द्वारा प्रथम स्थिति संबंधी दलिक को आकर्षित कर उदय में प्रक्षिप्त करता है उसे उदीरणा कहते हैं - उदीरणाप्रयोगेण दलिकं प्रथमस्थितिसत्कं दलिकं समाकृष्योदयसमये प्रक्षिपति सा उदीरणा तथा उदीरणा प्रयोग के द्वारा द्वितीय स्थिति से दलिक को खींच कर उदय में प्रक्षिप्त करता है, वह आगाल कहलाता है - द्वितीय स्थितेः सकाशादुदीरणा प्रयोगेण समाकृष्योदये प्रक्षिपति स आगाल इति। उदीरणा का ही विशेष ज्ञान कराने के लिये आगाल यह दूसरा नाम पूर्वाचार्यों ने कहा है। इस प्रकार उदय और उदीरणा के द्वारा प्रथमस्थिति को अनुभव करता हुआ तब तक जानना चाहिये जब तक कि दो आवलिका काल शेष रहता है । उस समय आगाल नहीं होता है, किन्तु केवल उदीरणा
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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