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[ कर्मप्रकृति - दूसरी बात यह है कि गुणश्रेणी रचना के लिये प्रथम समय में दलिक ग्रहण किये जाते हैं, वे अल्प होते हैं। उनसे दूसरे समय में असंख्यातगुणित दलिक ग्रहण किये जाते हैं, उनसे भी तीसरे समय में असंख्यातगुणित दलिक ग्रहण किये जाते हैं । इस प्रकार गुणश्रेणी करने के चरम समय तक जानना चाहिये तथा अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के समयों को अनुभव करते हुए और क्रम से क्षय होते हुए गुणश्रेणी दलिकों का निक्षेप शेष समय में अर्थात् बाकी रहे हुए समयों में होता है, उससे ऊपर नहीं बढ़ता है। अपूर्वकरण के पश्चात् अब अनिवृत्तिकरण का स्वरूप बतलाते हैं -
अनियट्टिम्मि वि एवं, तुल्ले काले समा तओ नाम। संखिजइमे सेसे, भिन्नमुहुत्तं अहो मुच्चा॥१६॥ किंचूणमुहुत्तसमं ठिइबंधद्धाए अंतरं किच्चा।
आवलिदुगेक्कसेसे, आगाल उदीरणा समिया॥ १७॥ शब्दार्थ – अनियट्टिम्मि – अनिवृत्तिकरण में भी, एवं - इसा प्रकार, तुल्ले – तुल्य, काले – काल में, समा - समान, तओ – उससे, नाम – नाम, संखिजइमे – संख्यातवां भाग, सेसे - शेष रहने पर, भिन्नमुहुत्तं – अन्तर्मुहूर्त, अहो – नीचे, मुच्चा – छोड़ कर,
किंचूणमुहुत्तसमं - कुछ कम मुहूर्त प्रमाण, ठिइबंधद्धाए - स्थितिबंधाद्धा (काल) द्वारा, अंतरं – अंतर, किच्चा – करके, आवलिदुगेक्कसेसे - दो और एक आवलि शेष रहने पर, आगाल - आगाल, उदीरणा - उदीरणा, समिया - विच्छेद होता है।
- गाथार्थ – अनिवृत्तिकरण में भी इसी प्रकार जानना चाहिये। इसमें समान काल में समान विशुद्धि होती है, इसलिये अनिवृत्तिकरण यह नाम सार्थक है। इसका संख्यातवां भाग शेष रह जाने पर एक अन्तर्मुहूर्त नीचे छोड़ कर और कुछ कम मुहूर्त (अन्तर्मुहूर्त) प्रमाण स्थितिबंधाद्धा (काल) जितना अंतर करके दो आवलि रहने पर आगाल का और एक आवलि शेष रहने पर उदीरणा का विच्छेद होता है।
विशेषार्थ – जिस प्रकार अपूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर स्थितिघात आदि कार्य विशेष एक साथ प्रवर्तमान होते हैं उसी प्रकार अनिवृत्तिकरण में भी कहना चाहिये। इसलिये 'तुल्ले काले समा तओ नामं त्ति' अर्थात् तुल्य यानि समान काल में इस करण में प्रविष्ट सभी जीवों की विशुद्धि समान होती है, विषम नहीं होती है, अतः अनिवृत्तिकरण यह सार्थक नाम है। इसका अभिप्राय यह है कि -