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________________ २५२ ] [ कर्मप्रकृति जोगंतुदीरगाणं जोगते सरदुगाणुपाणूणं। नियगंते केवलिणो सव्वविसुद्धीए सव्वासि ॥ ८७॥ शब्दार्थ - जोगंतुदीरगाणं - सयोगी के अन्त्य समय में उदीरणा योग्य, जोगते - सयोगी के अंतिम समय में, सरदुगाण - स्वरद्विक, आणुपाणुणं – प्राणापान (श्वासोच्छ्वास) की, नियगंते - अपने-अपने अन्त के समय, केवलिणो – केवली के, सव्वविसुद्धीए - सर्वविशुद्ध जीव के, सव्वासिं - सभी प्रकृतियों की। गाथार्थ – सयोगी के अन्त्य समय में उदीरणा के योग्य प्रकृतियों की सयोगी के अंतिम समय में, स्वरद्विक और प्राणापान (श्वासोच्छ्वास) नाम की अपने-अपने निरोध के अंतिम समय में केवली भगवान् के उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा होती है तथा सभी प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा सर्व विशुद्ध जीव के होती है। विशेषार्थ – 'जोगंतुदीरगाणं' अर्थात् सयोगी केवली अंतिम समय में चरम समय में जिन प्रकृतियों की उदीरणा करता है वे प्रकृतियां योग्यन्त उदीरक कहलाती हैं। ऐसी मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकसप्तक, तैजससप्तक, संस्थानषष्टक, प्रथम संहनन, वर्णादि बीस, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, विहायोगतिद्विक, त्रस, बादर, पर्याप्त प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति, निर्माण तीर्थंकर और उच्चगोत्र रूप बासठ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक चरम समय में वर्तमान सयोगी केवली होते हैं तथा केवली भगवान् के स्वरद्विक और प्राणापान की अपने अंत में अर्थात् अपने निरोध काल में उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा होती है। जिसका यह आशय है कि स्वरनिरोध काल में सुस्वर और दुःस्वर की तथा प्राणापान के निरोध काल में प्राणापान नामकर्म की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा होती है। अब सामूहिक रूप से सभी कर्मों की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा के स्वामित्व की यह सामान्य परिभाषा है कि - जो-जो जीव अपनी-अपनी प्रकृति की उदीरणा का अधिकारी है, वह वह सर्वविशुद्ध जीव उस उस कर्म की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा का स्वामी जानना चाहिये। आयुकर्म को छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र का गुणितकांश जीव उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा का स्वामी होता है। इसलिये दानान्तराय आदि पांचों अन्तराय प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा गुणितकांश और समयाधिक आवलिका काल शेष स्थिति में वर्तमान क्षीणकषाय के जानना चाहिये। इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा के स्वामित्व का विचार जानना चाहिये। अब जघन्य प्रदेश
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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