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________________ उदीरणाकरण ] [ २५१ विशेषार्थ – एकान्त रूप से जो प्रकृतियां तिर्यंचों के ही उदय योग्य होती हैं, ऐसी एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, आतप, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण नाम रूप आठ प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा निजक विशिष्ट अर्थात् अपनी-अपनी प्रकृति के उदय से युक्त जीवों के होती है। जिसका स्पष्ट आशय इस प्रकार समझना चाहिये कि - एकेन्द्रिय जाति और स्थावर नामकर्म की सर्व विशुद्ध बादर पृथ्वीकायिक में, आतप, नामकर्म की खर (बादर) पृथ्वीकायिक में, सूक्ष्म नामकर्म की पर्याप्त सूक्ष्म में, साधारण और विकलेन्द्रिय जाति नामकर्मों की उन-उन नामकर्मों के उदय वाले पर्याप्त सर्व विशुद्ध जीवों में उत्कृष्ट प्रदेश-उदीरणा होती है। अपर्याप्त नामकर्म की अपर्याप्त और आयु के चरम समय में वर्तमान संमूच्छिम मनुष्य उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। तिर्यंचगति की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा देशविरत तिर्यंच के होती है। क्योंकि वह सर्वविशुद्ध होता है। तथा - अणुपुव्विगइदुगाणं सम्मट्ठिी उ दूभगाईणं। नीयस्स य सेकाले, गहिहिई विरय त्ति सो चेव॥८६॥ शब्दार्थ – अणुपुव्विगइदुगाणं - चार आनुपूर्वी और चार गति इन दो की, सम्मट्टिीसम्यग्दृष्टि, उ – और, दूभगाईणं - दुर्भग आदि की, नीयस्स - नीचगोत्र की, य - और, सेकाले- अनन्तर समय में, गहिहिई – ग्रहण करेगा, विरय – विरत, त्ति – ऐसे, सो चेव-वही। गाथार्थ – चार आनुपूर्वी और चार गति की, उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा सम्यग्दृष्टि करता है। दुर्भग आदि की और नीचगोत्र की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा जो अनन्तर काल में विरति को ग्रहण करेगा, ऐसे अविरतसम्यक्त्वी के होती है। विशेषार्थ - चारों आनुपूर्वियों की उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा उस-उस गति के तृतीय भाग में वर्तमान सर्व विशुद्ध सम्यग्दृष्टि करता है। लेकिन इतना विशेष है कि नरक और तिर्यंचानुपूर्वी की उत्कृष्टं प्रदेश उदीरणा करने वाला क्षायिक सम्यग्दृष्टि कहना चाहिये। वही क्षायिक सम्यग्दृष्टि, देवगति और नरकगति का भी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक होता है। ___ जो अनन्तर समय में संयम को प्राप्त करेगा ऐसा अविरतसम्यग्दृष्टि ही दुर्भगादि का अर्थात् दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयश:कीर्ति रूप दुर्भगचतुष्क तथा नीचगोत्र का उत्कृष्ट प्रदेश उदीरक होता है। तथा -
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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