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________________ २४४ ] [ कर्मप्रकृति कइसमएणं भंते! आउजियाकरणे पन्नत्ते ? गोयमा! असंखिजसमईए अंतोमुहुत्तिए पन्नत्ते। प्रश्न – हे भदन्त! आयोजिकाकरण कितने समय वाला कहा गया है ? उत्तर – हे गौतम! असंख्यात समयरूप अन्तर्मुहूर्त काल वाला कहा गया है। यह आयोजिकाकरण जब तक आरम्भ नहीं किया जाता है, तब तक तीर्थंकरकेवलि के तीर्थंकर नामकर्म की जघन्य अनुभाग-उदीरणा होती है। अयोजिकाकरण में तो बहुत अधिक अनुभाग उदीरणा होती है। इसलिये अर्वाक्-पूर्व पद ग्रहण किया गया है। नील, कृष्ण वर्ण, दुरभिगंध, तिक्त, कटुक रस, शीत, रूक्ष, स्पर्श, अस्थिर और अशुभ नाम इन नौ प्रकृतियों की सयोगीकेवलि के चरम समय में जघन्य अनुभाग उदीरणा होती है। क्योंकि उसी समय उनके सर्वाधिक विशुद्धता होती है। कर्कश और गुरु स्पर्श की केवलिसमुद्घात से निवर्तमान केवलि के मंथान रूप के उपसंहार के समय जघन्य अनुभाग-उदीरणा होती है। तथा – सेसाण पगइवेई मज्झिमपरिणामपरिणओ होजा। पच्चयसुभासुभा वि य चिंतिय नेओ विवागे य॥७९॥ शब्दार्थ - सेसाण - शेष प्रकृतियों की, पगइवेई - उस उस प्रकृति का वेदक, मज्झिमपरिणामपरिणओ – मध्यम परिणाम से परिणत, होज्जा – होती है, पच्चय - प्रत्यय, सुभासुभा - शुभ-अशुभपना, वि - भी, य - और, चिंतिय – चिंतन करके, नेओ - जानना चाहिये, विवागे - विपाक में, य - और। गाथार्थ – शेष प्रकृतियों की जघन्य अनुभाग उदीरणा उस उस प्रकृति के वेदक और मध्यम परिणाम से परिणत जीव के होती है। प्रत्यय, शुभाशुभ अवस्था और विपाक का चिन्तवन करके (उत्कृष्ट जघन्य) अनुभाग-उदीरणा के स्वामी जानना चाहिये। विशेषार्थ – शेष प्रकृतियों के अर्थात् सातावेदनीय, असातावेदनीय, गतिचतुष्क, जातिपंचक, आनुपूर्वीचतुष्क, उच्छ्वास, विहायोगतिद्विक, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यश:कीर्ति, अयशःकीर्ति, उच्चगोत्र, नीचगोत्र इन चौंतीस प्रकृतियों की जघन्य अनुभाग-उदीरणा के स्वामी उस उस प्रकृति के उदय में वर्तमान और मध्यम परिणाम से परिणत सभी जीव होते हैं।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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