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________________ उदीरणाकरण ] [ २४३ जा नाउज्जियकरणं, तित्थगरस्स नवगस्स जोगते। कक्खडगुरूणमंते नियत्तमाणस्स केवलिणो॥ ७८॥ शब्दार्थ – जा - जब तक, नाउज्जियकरणं - आयोजिकाकरण नहीं करते, तित्थगरस्सतीर्थंकर नाम की, नवगस्स - नवक की, जोगंते – योग के अंत में, कक्खडगुरूणं - कर्कश, गुरु स्पर्श की, अंते - अंत में, नियत्तमाणस्स - निवर्तमान, केवलिणो - केवली के। गाथार्थ – जब तक आयोजिकाकरण नहीं करते, तब तक तीर्थंकर नाम की, नील आदि नौ प्रकृतियों की योग (सयोगी) के अन्त में, कर्कश और गुरु स्पर्श की अंत में निवर्तमान केवली के जघन्य अनुभाग उदीरणा होती है। विशेषार्थ – आयोजिकाकरण केवलीसमुद्घात से पहले होता है । इस पद में आङ् उपसर्ग मर्यादा के अर्थ का सूचक है। आयोजन अर्थात् केवलीदृष्ट मर्यादा से योजना अर्थात् व्यापार करना आयोजन कहलाता है - आ मर्यादया केवलिदृष्टया योजनं व्यापारणं = आयोजनं। यह आयोजन अति शुभ योग वाले जीवों के जानना चाहिये। इस प्रकार का आयोजन रूप जो करण है उसे आयोजिकाकरण कहते हैं। कितने ही आचार्य इसे (आयोजिकाकरण को) 'आवर्जितकरण' भी कहते हैं । तब उसका शब्दार्थ है - आवर्जित नाम अभिमुख होने या करने का है। जैसा कि लोक में वक्ता कहते हैं - मेरे द्वारा यह आवर्जित हुआ अर्थात् संमुख किया गया। इसलिये उस प्रकार के भव्यत्वभाव के द्वारा आवर्जित अर्थात् मोक्षगमन के प्रति अभिमुख जीव का जो करण अर्थात् शुभ योग का व्यापार करना वह आवर्जितकरण है - भव्यत्वेनावर्जितस्स मोक्षगमनं प्रत्याभिमुखीकृतस्यकरणं शुभयोगव्यापारणं आवर्जितकरणं। कुछ दूसरे आचार्य 'जा ना उस्सयकरणं' ऐसा पाठ पढ़ते हैं । तब इस पाठ में आवश्यककरण ऐसा शब्दसंस्कार है और यह अन्वर्थक-सार्थक नाम है । अर्थात् आवश्यक - अवश्य भाव से जो करण होता है, वह आवश्यक करण कहलाता है। जिसका स्पष्ट आशय यह है कि - कितने ही केवलि समुद्घात को करते हैं और कितने ही नहीं करते है, किन्तु इस आवश्यककरण को तो सभी केवलि करते हैं। यह आयोजिकाकरण असंख्यात समयात्मक अर्थात् अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है। जैसा कि प्रज्ञापना सूत्र में कहा है -
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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