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[ कर्मप्रकृति
में वर्तमान हैं, सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त हैं और सर्व संक्लेश से युक्त हैं, वे यथाक्रम से द्वीन्द्रिय जाति त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्म की और सूक्ष्म नामकर्म की उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा के स्वामी हैं । ह्रस्व (अल्प) स्थिति में वर्तमान जीव सर्वाधिक संक्लेश वाले होते हैं इस कारण गाथा में 'हस्सट्ठिई' 'ह्रस्वस्थिति' पद को ग्रहण किया है ।
'थावर निगोय' इत्यादि अर्थात् स्थावर साधारण ( निगोद) और एकेन्द्रिय जाति नामकर्मों की उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा के स्वामी जघन्य स्थिति में वर्तमान सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त और सर्व संक्लिष्ट एकेन्द्रिय जीव हैं । लेकिन इतना विशेष है कि स्थावर नाम का उदय वाला बादर एकेन्द्रिय जीव स्थावर नाम की, साधारण नाम का उदय वाला साधारण नाम की उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा का स्वामी है और एकेन्द्रिय जाति के दोनों ही प्रकार के (सूक्ष्म और बादर) एकेन्द्रिय जीव उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा के स्वामी होते हैं। बादर जीव के महान संक्लेश होता है। इसलिये गाथा में बादर पद को ग्रहण किया है तथा
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परघाय
य
और, चउरंस समचतुरस्र, मउय मृदु, लहुगाणं - लघु का, पत्तेय - प्रत्येक, खगइ - विहायोगति ( प्रशस्त ), पराघात, आहारतणूण आहारक शरीर (सप्तक), और, विसुद्ध – विशुद्ध । गाथार्थ विशुद्ध पर्याप्त आहारकशरीरी समचतुरस्त्र संस्थान, मृदु, लघु स्पर्श, प्रत्येक नाम, सुखगति, (शुभ विहायोगति ) पराघात और आहारकशरीर की उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा करता है । विशेषार्थ - समचतुरस्रसंस्थान, मृदु, लघु स्पर्श, प्रत्येक शरीर, प्रशस्तविहायोगति, पराघात और आहारकसप्तक इन तेरह प्रकृतियों की उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा का स्वामी सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त और सर्व विशुद्ध आहारकशरीर वाला संयत स्वामी है । तथा
• पर्याप्त, य शब्दार्थ - आहारतणू – आहारकशरीर, पज्जत्तगो
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गाथार्थ
आहारतणू पज्जत्तगो य चउरंसमउयलहुगाणं । पत्तेयखगइपरघा-याहारतणूण य विसुद्धो ॥ ६६ ॥
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उत्तरवेडव्विजई उज्जोवस्सायवस्स खरपुढवी । नियगगईणं भणिया तइए समए णुपुव्वीणं ॥ ६७ ॥
उत्तरवेव्विजई उत्तरवैक्रियशरीरी यति, उज्जोवस्स
उद्योत का, अपनी अपनी
शब्दार्थ आयवस्स - आतप का, खरपुढवी खर (वादर) पृथ्वीकायिक, नियगगईणं कहे गये हैं, तइए – तीसरे, समए - समय में, णुपुव्वीणं - आनुपूर्वियों के । उत्तरवैक्रियशरीरी यति उद्योत की, बादर पृथ्वीकायिक जीव आतप की और
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