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उदीरणाकरण ]
मीसं दुट्ठाणे सव्व - घाइदुट्ठाणएगठाणे य। सम्मत्तमंतरायं च, देसघाइ अचक्खू य॥ ४४ ॥
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शब्दार्थ - मीसं - मिश्रमोहनीय, दुट्ठाणे - द्विस्थानक, सव्वघाइ – सर्वघाति, दुट्ठाण - द्विस्थानक, एगठाणे एक स्थानक, य और, सम्मत्तमंतरायं सम्यक्त्व अन्तराय च - और, देसघाइ – देशघाति, अचक्खू - अचक्षुदर्शनावरण, य और ।
गाथार्थ मिश्रमोहनीय द्विस्थानक और सर्वघाति है । सम्यक्त्व मोहनीय और अन्तराय
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द्विस्थानक, एकस्थानक और देशघाति है । अचक्षुदर्शनावरण देशघाति है ।
विशेषार्थ – मिश्र अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व स्थानसंज्ञा की अपेक्षा सर्वघाति है । सम्यक्त्वमोहनीय प्रकृति उत्कृष्ट उदीरणा की अपेक्षा द्विस्थानक रस वाली और जघन्य उदीरणा की अपेक्षा एकस्थानक रस वाली और घाति संज्ञा की अपेक्षा देशघाति जानना चाहिये । यह बात वहां अर्थात् शतक में नहीं कही गई है, जिसको यहां बताया है । क्योंकि वहां शतक में अनुभागबंध की अपेक्षा से शुभ-अशुभ प्ररूपणा की गई है किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व का बंध संभव नहीं है। इसलिये इन दोनों को छोड़ कर ही वहां अशुभ प्रकृतियां निर्दिष्ट की गई हैं । किन्तु उदीरणा तो इन दोनों की भी होती है, इसलिये यहां पर विशेष रूप से इन दोनों का ग्रहण किया गया है।
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पांचों ही अन्तराय उत्कृष्ट उदीरणा की अपेक्षा द्विस्थानक रस वाले और जघन्य उदीरणा की अपेक्षा एकस्थानक रस वाले हैं तथा घातिसंज्ञा की अपेक्षा देशघाति जानना चाहिये । बंध की अपेक्षा तो पांचों ही प्रकार के अन्तरायकर्म चारों प्रकार के रस वाले हैं, यथा चतुः स्थानक, त्रिस्थानक, द्विस्थानक और एकस्थानक । अचक्षुदर्शनावरण घातिसंज्ञा की अपेक्षा देशघाति है । तथा
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ठाणेसु चउसु अपुमं दुट्ठाणे कक्कडं च गुरुकं च । अणुपुव्वीओ तीसं, नरतिरिएगंतजोग्गा य ॥ ४५॥ शब्दार्थ ठाणे नपुंसक वेद, दुट्ठाणे द्विस्थानक, कक्कडं कर्कश, च और, गुरुकं गुरु स्पर्श, च और, अणुओ आनुपूर्वियां तीसं – तीस, नरतिरिएगंतजोग्गा – मनुष्य तिर्यंच के एकान्त योग्य, य
चारों, अपुमं
स्थानक, च
और ।
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विशेषार्थ
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गाथार्थ अनुभाग- उदीरणा की अपेक्षा नपुंसकवेद चारों स्थानक रस वाला है । कर्कश और गुरु स्पर्श, चारों अनुपूर्वियां तथा मनुष्य और तिर्यंच के एकान्त योग्य तीस प्रकृतियां द्विस्थानक रस वाली हैं।
नपुंसकवेद बंध की अपेक्षा तीन प्रकार के रस वाला है, यथा
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चतुःस्थानक,