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________________ १९६ ] [ कर्मप्रकृति उदीरणास्थानों का प्रतिपादन करते हैं। इसके लिये गाथा में सेसकम्माणं इत्यदि पद दिया है। दर्शनावरण, मोहनीय और नामकर्म के उदीरणास्थानों का तो यथास्थान वर्णन किया जा चुका है। उनके सिवाय शेष रहे ज्ञानावरण, वेदनीय, आयु, गोत्र और अन्तराय कर्मों का एक एक उदीरणास्थान जानना चाहिये । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म का पांच प्रकृतिक रूप एक एक उदीरणास्थान होता है तथा वेदनीय, आयु और गोत्र इन तीन कर्मों का विद्यमान प्रकृतिक रूप एक एक उदीरणास्थान होता है । क्योंकि इन कर्मों की दो, तीन आदि प्रकृतियों का एक साथ उदय नहीं होने से एक साथ उनकी उदीरणा नहीं होती है । यह ज्ञानावरण आदि कर्मों का एक एक उदीरणास्थान है और पूर्वोक्त वेदनीय आदि के एक एक प्रकृतिक उदीरणा के स्वामित्व को गुणस्थानों में और नारकादि गतियों में निश्चय कर स्वयं जान लेना चाहिये । स्थिति - उदीरणा - इस प्रकार प्रकृति उदीरणा का विवेचन जानना चाहियें । हैं। अब स्थिति - उदीरणा का प्रतिपादन करने का अवसर प्राप्त है। उसके ये पांच अर्थाधिकार हैं - १. लक्षण, २. भेद, ३. सादि अनादि प्ररूपणा, ४. अद्वाच्छेद और ५. स्वामित्व । स्थिति उदीरणा लक्षण और भेद इनमें से पहले लक्षण और भेद का प्रतिपादन करते शब्दार्थ - संपत्तिए य उदए संप्राप्त उदय वाले, पओगओ – प्रयोग द्वारा, दिस्सए - दिये जाते हैं, उईरणा - उदीरणा, सा - वह, सेचीकाठिइहिं – भेद कल्पना योग्य स्थितियां, तावे, जाहिं – जिसमें, तो तत्तिगा - उतने भेद वाली, एसा यह । - — संपत्ति य उदए, पओगओ दिस्सए उईरणा सा । चीकाठिइहिंता जाहिं तो तत्तिगा एसा ॥ २९॥ - गाथार्थ प्रयोग द्वारा असंप्राप्त उदय वाले दलिकों की जो स्थिति संप्राप्त उदय वाले लिकों में दी जाती है, अनुभव करायी जाती है, वह स्थितिउदीरणा कहलाती है । पुनः उदीरणाप्रायोग्य जितनी स्थितियों को उदीरणा प्रयोग द्वारा उदय में दी जाती है, उतने भेद वाली उदीरणा होती है । १. सम्प्राप्त - उदय और २. असम्प्राप्त - उदय । इनमें से विशेषार्थ उदय दो प्रकार का है -
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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