________________
उदीरणाकरण ]
[ १९५ सौ बावन और देवों की अपेक्षा आठ भंग प्राप्त होते हैं। शेष भंग तथावत् हैं। इस प्रकार उन सब की अपेक्षा छप्पन प्रकृतिक उदीरणास्थान में सर्व भंग उनतीस सौ सत्रह होते हैं।
सत्तावन प्रकृतिक उदीरणास्थान में स्वमत से पांच सौ नवासी भंग होते हैं । यथा - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की अपेक्षा प्रत्येक के चार-चार भंग होते हैं। इस प्रकार विकलत्रिक के बारह भंग, तिर्यंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा पांच सौ छिहत्तर भंग और तीर्थंकर की अपेक्षा एक भंग होता है। यहां भी मतान्तर से तिर्यंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा ग्यारह सौ बावन भंग प्राप्त होते हैं । शेष भंग ऊपर कहे गये अनुसार जानना चाहिये। इसलिये मतान्तर की अपेक्षा सत्तावन प्रकृतिक उदीरणास्थान में सर्व भंग ग्यारह सौ पैंसठ होते हैं। गतियों में उदीरणास्थान गतियों का आश्रय लेकर उदीरणा स्थानों की प्ररूपणा करते हैं -
पंच नव नवग छक्काणि, गईसु ठाणाणि सेसकम्माणं।
एगेगमेव नेयं, साहित्तेगेगपगईउ ॥२८॥ शब्दार्थ - पंच नव नवग छक्काणि – पांच, नौ, नौ, छह, गईसु – गति में, ठाणाणिस्थान, सेसकम्माणं - शेष कर्मों के, एगेगमेव – एक एक ही, नेयं – जानना चाहिये, साहित्तेगेगस्वामित्व, एक, एक, पगईउ - प्रकृति का।
गाथार्थ – नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति में क्रमश: पंच, नौ, नौ और छह उदीरणास्थान होते हैं । शेष कर्मों के एक एक उदीरणास्थान जानना चाहिये एवं एक एक प्रकृतिक का स्वामित्व स्वयं समझ लेना चाहिये।
विशेषार्थ – नरकगति में पांच उदीरणास्थान होते हैं, यथा – बयालीस, इक्यावन, तिरेपन, चउवन और पचपन प्रकृतिक। तिर्यंच गति में इकतालीस प्रकृतिक को छोड़कर शेष नौ उदीरणास्थान, मनुष्यगति में भी सयोगी केवली आदि की अपेक्षा पचास प्रकृतिक स्थान को छोड़ कर शेष नौ उदीरणास्थान होते हैं। देवगति में छह उदीरणास्थान होते हैं यथा - बयालीस, इक्यावन, तिरेपन, चउवन, पचपन और छप्पन प्रकृतिक।
ये सभी उदीरणास्थान पहले विस्तार से कहे जा चुके हैं इसलिये जिज्ञासु जनों को वहां से जान लेना चाहिये।
इस प्रकार नामकर्म के उदीरणास्थानों का विस्तार से विचार करने के बाद अब शेष कर्मों के
१. उक्त समग्र कथन का प्रारूप प.१९४ में देखें।