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________________ उदीरणाकरण ] _ [ १८५ अब विक्रिया करने वाले मनुष्यों के स्थान व भंगों का कथन करते हैं - विक्रिया करने वाले मनुष्यों के पांच उदीरणास्थान होते हैं यथा - इक्यावन, तिरेपन, चउवन, पचपन और छप्पन प्रकृतिक। इनमें से इक्यावन और तिरेपन प्रकृतिक उदीरणा स्थान जैसे पहले वैक्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रियों के कहे हैं, उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिये और इनके भंग भी तदनुरूप होते हैं । अर्थात् इक्यावन प्रकृतिक स्थान में स्वमत से चार भंग और मतान्तर से आठ भंग होते हैं तथा तिरेपन प्रकृतिक स्थान में स्वमत से चार भंग और मतान्तर से आठ भंग होते हैं। उच्छ्वास सहित चउवन प्रकृतिक उदीरणास्थान में स्वमत से चार और मतान्तर से आठ भंग होते हैं। उत्तर विक्रिया करने वाले संयतों के साथ चउवन प्रकृतिक उदीरणा स्थान में (स्वमत और परमत(मतान्तर) से) प्रशस्त एक एक ही भंग होता है। क्योंकि संयतों के दुर्भग, अनादेय और अयश:कीर्ति का उदय नहीं होता है। इस प्रकार चउवन प्रकृतिक उदीरणास्थान में स्वमत से सर्व भंगों की संख्या पांच और मतान्तर से नौ होती है। तत्पश्चात् भाषापर्याप्ति से पर्याप्त मनुष्य के उच्छ्वास सहित पूर्वोक्त चउवन प्रकृतिक स्थान में सुस्वर नाम के मिलाने पर पचपन प्रकृतिक उदीरणास्थान होता है। यहां पर भी पूर्व के समान स्वमत से चार भंग और मतान्तर से आठ भंग होते हैं । अथवा संयतों के स्वरनाम का उदय नहीं होने पर और उद्योत नाम के उदय होने पर पचपन प्रकृतिक उदीरणास्थान होता है। यहां पर भी पूर्व के समान एक ही भंग होता है । इस प्रकार पचपन प्रकृतिक उदीरणास्थान में भंगों की सर्व संख्या स्वमत से पांच और मतान्तर से नौ होती है। ___ सुस्वर सहित पचपन प्रकृतिक उदीरणास्थान में उद्योत को मिलाने पर छप्पन प्रकृतिक उदीरणास्थान होता है। इसमें एक ही प्रशस्त भंग होता है। . इस प्रकार विक्रिया करने वाले मनुष्यों के भंगों की सर्व संख्या स्वमत से उन्नीस [४+४+५+५+१=१९] होती है। और मतान्तर से पैंतीस [८+८+९+९+१=३५] होती है। अब आहारकशरीर को करने वाले मनुष्यों के उदीरणास्थानों और उनके भंगों को बतलाते हैं । आहारकशरीर का उदय मनुष्यगति में संयतों के ही होता है। आहारकसंयतों के उदीरणास्थान पांच होते है, यथा - इक्यावन, तिरेपन, चउवन, पचपन और छप्पन प्रकृतिक। पूर्वोक्त मनुष्यगति प्रायोग्य बयालीस प्रकृतिक उदीरणास्थान में आहारकसप्तक, समचतुरस्र संस्थान, उपघात और प्रत्येक नाम इन दस प्रकृतियों के मिलाने और मनुष्यानुपूर्वी के निकालने पर
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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