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उदीरणाकरण ]
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से उदीरणा होती ही है।
प्रश्न – बंध समय से लेकर आवलिका काल व्यतीत होने पर भी उदय कैसे संभव है ? क्योंकि अबाधा काल के व्यतीत हो जाने पर उदय होता है और अनन्तानुबंधी कषायों का अबाधा काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चार हजार वर्ष है।
उत्तर – यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि बंध समय से लेकर उन अनन्तानुबंधी कषायों की सत्ता होती है और सत्ता होने पर उसमें पतद्ग्रहता आ जाती है और उस पतद्ग्रहता के होने पर चारित्र मोहनीय की शेष प्रकृतियों के दलिकों का संक्रमण होने लगता है और संक्रमण हुए कर्मदलिकों का संक्रमावलि व्यतीत होने पर उदय होने लगता है और उदय होने पर उदीरणा होने लगती हैं। इसलिये बंध समय के अनन्तर आवलिका के व्यतीत होने पर उदीरणा होने के कथन में विरोध नहीं होता है। उसी पूर्वोक्त सप्त प्रकृतिक उदीरणास्थान में भय और जुगुप्सा के अथवा भय और अनन्तानुबंधी किसी एक कषाय के मिलाने पर नौ प्रकृतियों की उदीरणा होती है। यहां पर भी एक एक विकल्प में पूर्वोक्त क्रम से चौबीस भंग प्राप्त होते हैं । इस प्रकार नौ प्रकृतिक उदीरणास्थान में भंगों की तीन चौबीसी जानना चाहिये।
__ उसी पूर्वोक्त सप्तप्रकृतिक उदीरणास्थान में भय, जुगुप्सा और अनन्तानुबंधी कोई एक कषाय का युगपत प्रक्षेप करने पर दस प्रकृतियों की उदीरणा होती है । इस दसप्रकृतिक उदीरणास्थान में भंगों की एक ही चौबीसी होती है।
इस प्रकार मिथ्यादृष्टि के चार उदीरणास्थान जानना चाहिये। अब सास्वादन सम्यग्दृष्टि आदि के उदीरणास्थानों को बतलाते हैं -
सासणमीसे नव, अविरए य छाई परम्मि पंचाई।
अट्ठ विरए य चउ-राइ सत्त छच्चोवरिल्लंमि॥२३॥ शब्दार्थ – सासणमीसे – सास्वादन और मिश्र में, नव – नौ, अविरए - अविरत में, छाई - छह आदि, परम्मि – आगे के गुणस्थान में (देशविरत में) पंचाई – पांच आदि, अट्ठ - आठ, विरए - विरत में, य - और, चउराइ – चार आदि, सत्त - सात, छच्चोवरिल्लंमि - छह तक ऊपर के गुणस्थान में (अपूर्वकरण में)।
___गाथार्थ – सास्वादन और मिश्र गुणस्थान में सात को आदि लेकर नौ तक के तीन उदीरणास्थान हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि में छह को आदि लेकर नौ तक के चार उदीरणास्थान हैं देशविरत में पांच को आदि लेकर आठ तक के चार उदीरणास्थान, प्रमत्त और अप्रमत्त विरत में चार को आदि लेकर सात